Sunday, August 10, 2008

कविता के कार्य

सभ्यता के विकास से मानव जीवन अनेक आवरणों से ढक और जकड़ जाता है. कविता इन आवरणों को भेदती है और भावों को उनके मूल या आदिम रूपों तक ले जाती है. उदाहरण के लिए :
किसी का कुटिल भाई उसे सम्पत्ति से एकदम वंचित रखने के लिए वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज़ तैयार करता है. इसकी ख़बर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है. प्रत्यक्ष व्यावहारिक दृष्टि से तो उसके क्रोध का विषय है वह दस्तावेज़ या कागज़ का टुकड़ा. पर उस कागज़ के टुकड़े के भीतर वह देखता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न वस्त्र न मिलेगा. उसके क्रोध का प्रकृत विषय न तो वह कागज़ का टुकड़ा है और न उस पर लिखे हुए काले-काले अक्षर. ये तो सभ्यता के आवरण मात्र हैं. अत: उसके क्रोध में और कुत्ते के क्रोध में, जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्ता छीन रहा है, काव्य दृष्टि से कोई भेद नहीं है.
इस प्रकार कविता सभ्यता के आवरणों को भेद कर भावों के आदिम रूपों को हमारे सामने लाती है.
कविता सृष्टि के व्यापक विस्तार के साथ भावों का विस्तार करती है. पशु की भावना संकीर्ण और केवल उसके तात्कालिक रूप तक सीमित होती है. किन्तु मनुष्य की भावना जीव जगत् ही नहीं, पदार्थों तक में फैली होती है. इस प्रकार कविता मनुष्य के संपर्क में आने वाली समस्त सृष्टि के साथ उसके भावों का संयोग करती है.
कविता को भावयोग कहा गया है. कविता मनुष्य की भावसत्ता के सर्वोत्त्म रूप का साक्षात्कार कराती है. वह मनुष्य को स्व-पर की संकीर्ण सीमा के ऊपर उठा देती है.
कविता का एक कार्य आनंद प्रदान करना भी है. लेकिन कविता के आनंद का मूल्य तभी है जब वह जीवन के किसी मार्मिक तथ्य का उद्घाटन भी करे.

.................प्रो. नित्यानंद तिवारी, साभार

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