संस्कृति अपनी भाषा में निबद्ध होती है. भाषिक परिवर्तन संस्कृति के स्वरूप को भी परिवर्तित करता है, और भाषा की मृत्यु संस्कृति को भी मारती है. भारतीय संस्कृति भारत की बहुभाषायी अस्मिता पर आधारित बहुआयामी संस्कृति की एकता की परिचायक है. ऐसे में भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व भारतीय संस्कृति में भी पश्चिम के वर्चस्व को स्थापित करता है. जिस तरह भाषिक अभिव्यक्ति मिक्स होती जा रही है, उसी तरह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी. आज के युवाओं के पहनावे, साज-श्रृंगार, संवाद-विवाद का तरीका, सुख और सुविधाओं के आधारभूत तत्त्व और परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रदर्शन का स्वरूप भारतीय संस्कृति की नव्यात्मकता को स्पष्ट कर देता है. ऐसे में अमिताभ बच्चन का यह कथन हास्यास्पद लगता है कि
आज हर बात पर सोचने और काम करने के तरीकों और दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूर आ गया है. इस बदलाव को संस्कृति के बदलाव से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.
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भारतीय संस्कृति एक रंगमहल है जिसमें अनगिनत दरवाजे हैं. जवाहरलाल नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था और मनमोहन सिंह के उदारवाद ने क्रमश: इन दरवाजों को खोल दिया. समय के साथ संस्कृति के रंग-रूप बदलते गए, जिसे किसी ने पापुलर कल्चर और मास कल्चर पुकारा तो किसी ने अपसंस्कृति कहा. समकालीन भूमंडलीकृत उद्योगों ने एक तरफ भारत के अर्थशास्त्र को बदल दिया है तो दूसरी तरफ सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी. संस्कृति का विराट उद्योग जगत अत्यंत उद्धत और विकसित है. जिसके माध्यम से उत्पादित संस्कृति को छुट्टा साँड भी कहा जाता है.
भारतीय युवाओं पर संस्कृति के इस वर्तमान स्वरूप का न केवल प्रभाव पड़ता है वरन् प्रभाव की रूपरेखा उद्योगों के स्वरूप को भी परिवर्तित कर देती है. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति हिन्दुस्तान की जातीय पहचान न रहकर, निर्यातित अथवा आयातित माल का परम्परागत संस्कृति के साथ री-मिक्स आइटम हो जाती है. इस आइटम में जातिगत कट्टरता की शिथिलता, प्रेम की पाबंदियों का तिरस्कार सकारात्मक है तो अश्लील चाहतों, नंगई हरकतों के साथ स्वार्थ की प्रबलता भी विद्यमान है, जो मानवीय चेतना और मूल्यों को कमज़ोर करती जा रही है. ऐसा पूर्ववर्ती दौर में भी था, लेकिन इसके दायरे हुआ करते थे. आज दायरों को या तो अभाव है, अथवा दायरों के भी दायरे हैं. सांस्कृतिक बाज़ारतंत्र में नैतिक दायरों की सख्त ज़रूरत है.
फिल्में, टी.वी., सूचना, फैशन, पेज-थ्री, खेल, विज्ञापन, धार्मिक आचरण आदि क्षेत्रों के माध्यम से युवा वर्ग की जीवन-शैली और जीवन-मूल्य निर्धारित होता है, जिससे संस्कृति परिवर्तित, विकसित एवं पुनर्रचित हो पाती है. इसीलिए यह क्षेत्र बाज़ारतंत्र की गतिविधियों को तय करता है जो केवल लाभ के एकल उद्देश्य से गतिशील रहता है. फलत: संस्कृति, आदर्शतम मूल्यों से परे व्यक्तिगत-मूल्य-विधानों की नियंता बन जाती है. आज भारतीय युवक यह कहते ना के बराबर दिखते हैं कि मैं गरीबों का दिल, हूँ वतन की ज़ुबाँ. अक्सर यही कहते दिखते हैं कि मैं अमीरों से अमीर, होऊँ अमेरिकन इंसाँ. वह भी अंग्रेजी में.
स्पष्ट है कि समकालीन युवाओं पर व्यक्तिगत-मूल्य-विधानों का प्रभाव अधिक है, जिसे अर्जित करने की कोई निर्धारित अथवा नैतिकजन्य प्रविधि नहीं है. ऐसे में धूमिल की ये पंक्तियाँ प्रासंगिक लगती हैं कि
ज़िंदा रहने के पीछे यदि सही (मानवीय) तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रंडियों की
दलाली करके रोजी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है.
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nice article...
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