Saturday, June 14, 2008
विकास का सांस्कृतिक आधार
जब हम एशिया में हुए पिछले पचास वर्षों के विकास-प्रयासों पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं कि विकास के तीन मुख्य मॉडल अपनाये गये और तीनों अलग-अलग विचारधाराओं पर आधारित थे. अपनायी गयी विचारधारा ने विकास प्रक्रिया को प्रभावित तथा प्रोत्साहित किया और विकास को नये मोड़ दिये. अनेक देशों ने स्थानीय परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए आधुनिकीकरण के पश्चिमी मॉडल को अपनाया. यह विकास का पूँजीवादी मॉडल था. कुछ ने राष्ट्र-निर्माण का क्रान्तिकारी रास्ता चुना. उनके सामने सोवियत समाजवादी पुनर्रचना का मॉडल था. बाद में चीन के जनवादी गणतन्त्र तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बने समाजवादी देशों से भी उन्होंने प्रेरणा ली. इन समाजवादी प्रयोगों का वैचारिक आधार तो एक ही था, परन्तु कार्यक्रमों का क्रियान्वयन राष्ट्रीय सन्दर्भों तथा बदलती परिस्थितियों के अनुसार किया गया. शेष देशों ने अपने-अपने स्वयं के मॉडल बनाये। कहीं नियन्त्रित लोकतन्त्र की बात कही, कहीं बुनियादी लोकतन्त्र का नाम लिया और इसी तरह के अन्य रूपों को अपनाया गया. अधिकतर इन प्रयासों के माध्यम से तत्कालीन सत्ता के ढाँचे को सही सिद्ध करने की कोशिश की गयी. इन देशों में अपनी स्वतन्त्र राह अपनाने की बात कही गयी थी, परन्तु उनके इस दावे में विश्वसनीयता नहीं थी. मुख्य मॉडल दो ही थे. स्वतन्त्र राह की बात करने वाले कभी पश्चिमी पूँजीवादी व्यवस्था की ओर झुकते थे और कभी समाजवादी व्यवस्था की ओर। इन देशों में से अधिकांश ने पश्चिमी व्यवस्था को अपनाया. लक्ष्य निर्धारण के प्रेरणा-स्त्रोतों को समझने के लिए आवश्यक है कि विकास के इन तीनों रूपों की गम्भीरता से विवेचना की जाए.
पहले पश्चिमी मॉडल पर विचार करें. 1940 के दशक के अन्तिम तथा 1950 के आरम्भ के वर्षों में तीसरी दुनिया में उत्साह का वातावरण था. उपनिवेश तथा आश्रित देश राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर रहे थे और अपने-अपने राष्ट्रीय विकास की महत्वकांक्षी रूपरेखाएँ बना रहे थे. उन्हें आशा थी कि योजनाएँ बनाकर तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहायता एवं तकनीकी पथ-प्रदर्शन का सहारा लेकर वे अपनी बीमार अर्थ-व्यवस्थाओं को बदल डालेंगे और इसी के साथ सम्पन्नता और समृद्धि के युग का प्रारम्भ हो जाएगा. वे मात्र दो दशकों में औद्योगिक विकास के उस स्तर को प्राप्त करने की आशा लगाये थे जिसको प्राप्त करने में पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका को दो सौ साल लगे थे. धनी और औद्योगिक क्षेत्र के अधिक विकसित देशों में विकास विशेषज्ञों की रातों- रात पैदा होने वाली फ़ौज ने विकास के आकर्षक और अपरीक्षित नुस्ख़े प्रस्तुत किये जिनसे इन अप्रत्याशित आशाओं को बढ़ावा मिला.
बीस साल बाद तीसरी दुनिया के सोच का ढंग अधिक यथार्थवादी बना. उन्हें यह अहसास हुआ कि आज़ादी के उल्लास में तीसरी दुनिया के देशों ने अपनी क्षमताओं और सम्भावनाओं का आकलन बहुत बढ़-चढ़कर किया था. तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने अपनी सीमित विशेषज्ञता को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया था. उनका यह ज्ञान अज्ञानियों को गर्वोक्ति सिद्ध हुआ. उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रगति का प्रतिरूप असफल हुआ और वह चमत्कार नहीं हुआ जिसकी आशा विकासशील विश्व को थी.
विकास की इस प्रारम्भिक अवधारणा की कमियाँ अब स्पष्ट थीं, तीसरी दुनिया की समझ में आ गया था कि विकास की प्रक्रिया में अनेक उलझाव हैं और इसमें एक-दूसरे से जुड़े अनेक ऐसे तत्व हैं जो देश और काल के अनुसार परिवर्तनशील हैं. विकास ऐसी सीधी और सरल प्रक्रिया नहीं है जिसमें हिसाब लगाकर निवेश किया जाए और तदनुरूप उत्पाद पा लिया जाए. प्रौद्योगिकी के स्थानान्तरण में भी अनेक कठिनाइयाँ होती हैं. कभी –कभी यह सुझाव भी दिया गया कि विदेशी संस्थाओं को भी अपनाया जाए, परन्तु संस्थाओं का स्थानान्तरण असम्भव पाया गया. नयी प्रौद्योगिकी को अपनाने में समय लगता है और इसके लिए धीरज और सतत नवाचार की आवश्यकता होती है. उसकी उपयुक्तता का पता प्रयासों की सफलता और असफलता से ही लगता है. विकास के अनुरूप संस्थात्मक तथा प्रेरणात्मक ढाँचा बनाते समय अनेक विरोधाभासों और जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है. असफलता के अनेक बहाने खोजे जाते हैं, परन्तु इनसे एक झूठा सन्तोष ही मिलता है और उनसे निश्चित समय में प्राप्त की जानेवाली प्रगति का कारगर रास्ता नज़र नहीं आता. आवश्यक है कि हम पिछले अनुभव की पृष्ठभूमि में विचार करें कि विकास का पश्चिमी प्रतिरूप असफल क्यों हुआ और इस आधार पर विकल्पों को निर्धारित करने का प्रयत्न करें. इसका अर्थ है कि हमें विकास की अपनी अवधारणा तथा तत्सम्बन्धी कार्यप्रणाली पर गम्भीरता से पुनर्विचार करना चाहिए.
यह आश्चर्य की बात है कि विकास के अभिप्राय की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गयी. विकास के सूचक-विकास दर, सकल राष्ट्रीय उत्पाद और प्रति-व्यक्ति औसत आय-पूरी तरह आर्थिक मापदंड ही माने गये, सामाजिक और सांस्कृतिक सूचकों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. यह मान लिया गया था कि इन आर्थिक सूचकों के आधार पर प्राप्त किये गये राष्ट्रीय लाभ किसी-न-किसी तरह नीचे पूरी जनता तक पहुँच जाएँगे. वास्तव में हुआ यह कि विकास के लाभों का बड़ा भाग समाज के उच्च वर्ग को मिला, जिसके हाथ में उत्पादन के साधन थे. इस तरह एक नया शोषक वर्ग विकसित हुआ. इस आर्थिक क्रिया-कलाप को दिशा देने वाले प्रमुख समूह ने विशेष लाभ प्राप्त कर लिये, समाज का गरीब वर्ग इन लाभों से प्रायः अछूता रहा. आम गरीब जनता को ऐसे विकास का नाम-मात्र का लाभ मिला, और यह लाभ भी राज्य के द्वारा दी जाने वाली सामाजिक सेवाओं के रूप में था. गरीबी और अमीरी के बीच की दूरी बढ़ी. समाज में अल्पसुविधा प्राप्त गरीबों का अनुपात बढ़ा. गरीबी की रेखा से नीचे की जनता से त्याग और सेवा की अपीलें अर्थहीन थीं, वे बलिदान और सेवा करने के लिए अपने जीवन के अविश्वसनीय रूप से नीचे स्तर से और अधिक नीचे जा ही नहीं सकते थे. विकास–योजनाओं में इन वर्गों के प्रति थोड़ा दिखावटी प्रेम प्रदर्शित किया गया, ‘समाजवाद’ और ‘वितरणात्मक न्याय’ के आकर्षक नारे दिये गये। ये दीर्घकालीन उद्देश्य थे, जो कभी सूदुर भविष्य में ही प्राप्त होने थे. इन उद्देश्यों की बात तो कही गयी परन्तु उनको प्राप्त करने का कोई समयबद्ध कार्यक्रम नहीं बनाया गया. जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की ओर समुचित ध्यान भी नहीं दिया गया. तथ्य यह है कि पूरा मॉडल अन्ततः उपभोक्तावादी समाज का था और उपभोक्तावाद ही उसका मुख्य दर्शन था. उच्च वर्ग को दोनों प्रकार के लाभ थे, एक ओर उन्होंने विकसित दुनिया की नयी आवश्यकताओं, उपभोक्तावादी संरचना और यन्त्रवाद को अपनाया, और दूसरी ओर तीसरी दुनिया की सामन्तवादी विलासिता और औपनिवेशिक दृष्टिकोण को क़ायम रखा. अधिकांश जनता को कम मज़दूरी पर काम करना पड़ा या बेरोज़गारी का सामना करना पड़ा. इस प्रकार सामान्यजन के ग़रीबी और दुख भरे जीवन के बीच एक छोटा-सा समूह समृद्धि के असाधारण रूप से ऊँचे स्तर का उपभोग कर रहा था. इस दुखद स्थित का विकल्प खोजने का प्रयास ही नहीं किया गया-एक ऐसा विकल्प जिससे इस दुखावस्था में रहने वाले ग़रीबों को ऐसा जीवन स्तर प्राप्त हो सके जो मानवीय दृष्टि से पर्याप्त और सम्मानजनक हो. अधिकांश सत्ताधारी जनता के सामने क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किये थे, परन्तु अपने व्यक्तिगत जीवन में वे उपभोक्तावादी दर्शन का अनुसरण करते थे. अनियन्त्रित स्वार्थ और असीम लिप्सा के कारण इस विशिष्ट वर्ग के सामान्य जनता का विश्वास खो दिया. आखिरकार वे जनता को क्या दे सकते थे? केवल वायदे, और उन वायदों का पूरा होना निकट भविष्य में सम्भव नहीं दिखायी देता था.
आर्थिक विकास को एक रास्ते पर चलना था और उसे कुछ अवश्यम्भावी अवस्थाओं से गुज़रना था. जो प्रौद्योगिकी अपनायी गयी वह पश्चिम में विकसित हुई थी और इसलिए वह पश्चिमी सामाजिक वातावरण के अनुरूप थी. पश्चिमी प्रौद्योगिकी अधिकांशतः सघन पूँजी निवेश पर आधारित थी, इसलिए वह उन देशों के लिए उयुक्त नहीं थी जहां पूँजी की कमी थी और श्रम बहुतायत से उपलब्ध था. ऐसी प्रौद्योगिकी को अपनाने से रोज़गार के अवसर बहुत कम बढ़े और बढ़ती हुई बेरोज़गारी के संकट को कम करने में अधिक सहायता नहीं मिली. अल्प विकसित देशों में बेरोज़गारी की बढ़ती हुई संख्या एक कष्टदायक तस्वीर प्रस्तुत करती है. इस प्रौद्योगिकी के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता थी, और यह ऊर्जा या तो आन्तरिक स्रोतों से प्राप्त होनी थी-ऐसे आन्तरिक स्रोत जिनका पुनर्भरण नहीं हो सकता था, या फिर बाह्य स्रोतों से; और जिनके पास ये बाह्य स्रोत उपलब्ध थे उन्हें इन पर लगभग एकाधिकार प्राप्त था और इसलिए वे उनकी मनमानी कीमत वसूल कर सकते थे. जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही थी, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी मात्रा में उपयोग हुआ. इससे निकट भविष्य में संसाधन-समाप्ति का संकट उपस्थित हो गया. औद्योगिक उत्पादन का एक बड़ा भाग केवल विशिष्ट वर्ग के उपभोग से जुड़ा था और सामान्य जन की व्यक्तिगत तथा सामुदायिक आवश्यकताओं से इसका बहुत कम सम्बन्ध था.
यह विकास भी निर्भरता के ढाँचे के अन्तर्गत होना था. विदेशी तकनीकी ज्ञान ऊँची कीमत पर खरीदा गया. काफ़ी हानि हो जाने के बाद तीसरी दुनिया को पता चला कि अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता और ऋण सदैव सदाशयता के कारण नहीं दिये गये थे. इन सहायताओं और ऋणों से अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष शर्तें जुड़ी हुई थीं. आज अनेक देशों को लगभग उतना ही धन वापस करना पड़ता है जितना वे ऋण के रूप में लेते हैं. ऋण भुगतान का चक्र एक संवेदनशील विषय है और इससे ग़रीब राष्ट्रों और अमीर राष्ट्रों के सम्बन्ध प्रभावित होते हैं. इसमें ग़रीब देश हानि में रहते हैं. विदेशी सहायता के बारे में सोचा गया था कि यह एक अस्थायी व्यवस्था है, परन्तु अब वह एक स्थायी आवश्यकता बनती जा रही है, और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह सहायता, उन देशों के हाथ में शक्ति का स्रोत बन गयी है जो उसे देते हैं. सहायता देने वाले प्रभावशाली देश सहायता पाने वाले देशों पर खुला राजनीतिक प्रभाव डालते हैं कि वे ऐसी नीतियों को अपनाएँ जिनसे सहायता देनेवाले देशों का हित हो. परोक्ष रूप से उन्होंने अनेक प्रकार के दबाव डाले हैं, जिनमें से कुछ का अर्थ है सहायता प्राप्त करनेवाले देशों की स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता का परिसीमन। सहायता और ऋण समझौतों में निरापद दिखाई देनेवाली शर्तों से भी सहायता देनेवाले देशों के हितों की रक्षा हुई, सहायता प्राप्त करनेवाले देशों को अनेक सेवाएँ तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय दरों की तुलना में अधिक मूल्य पर ख़रीदनी पड़ीं. सहायता देने वाले देशों को यह पसन्द नहीं था कि विकासशील देश अपनी मर्ज़ी की स्वतन्त्र नीति पर चलें. आत्मनिर्भरता के उनके प्रयासों के ग़लत समझा गया. स्वतन्त्र मार्ग पर चलने का प्रयास करनेवाले देशों को सहायता बन्द करने की प्रत्यक्ष और परोक्ष धमकियाँ दी गयीं. विदेशी सहायता विकासशील देशों में नव-उपनिवेशवाद का आधार तैयार करने और उसे क़ायम रखने का साधन बनी. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को आश्रित व्यवस्था की भूमिका निभानी पड़ी.
तीसरी दुनिया जानती है कि समकालीन विश्व अर्थव्यवस्था अन्तर्निहित अन्याय पर आधारित है, इसलिए यह आवश्यक है कि इसका ढाँचा बदले ताकि विकासशील देशों को अपने संसाधनों के उपयोग और मानव जाति की उत्पादन-प्रक्रिया में सार्थक हिस्सेदारी मिल सके. उन्होंने समझ लिया है कि ‘प्रगति की सीमाओं’ का निहित अर्थ विकसित देशों की अपेक्षा अविकसित देशों पर अधिक रोक लगाना है. उनको सलाह दी जाती है कि वे पृथ्वी के प्रदूषण को और न बढ़ाएँ, इस उपदेश का उद्देश्य सराहनीय प्रतीत होता है परन्तु इसका पालन सम्भव नहीं है, इसलिए विकासशील देशों को यह उपदेश सुनकर उलझन होती है. तीसरी दुनिया ने ‘जीवन नौका सिद्धान्त’ के बारे में भी सुना है, जिसका आशय है कि तीसरी दुनिया के उन जीवन-क्षम देशों को ही सहायता दी जाए जिनमें कुछ ऊर्जा शेष है और जो ऐसी सहायता का उपयोग करने में सक्षम हैं. शेष की चिन्ता व्यर्थ है. क्या विकासशील देशों के निवासी हम सर्वनाश की आखिरी मंजिल पर पहुँच गये हैं ?
विकासशील देशों ने अब उन मानवीय क़ीमतों का अनुमान लगाना शुरू किया है, जो नयी टेक्नॉलोजी के मार्ग पर चलने में उन्हें चुकानी पड़ती हैं. पश्चिमी मॉडल पर आधारित विकास की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं और सामाजिक संरचना के परिवर्तनों ने उनकी सांस्कृतिक स्वायत्तता और पहचान के लिए संकट खड़ा कर दिया है. चाहे जो भी कारण हो, विकास के जैसे परिणामों का वायदा था, वे सामने नहीं आये. प्रश्न है, क्या हम इन वायदों के लाभों के लिए अपने सांस्कृतिक व्यक्तित्व को हास्यास्पद हो जाने दें ? इस दौरान उद्योग के क्षेत्र में प्रगत पश्चिम में भी तनाव के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं; तीव्र गति से होने वाले औद्योगीकरण से उत्पन्न सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का मुक़ाबला करने में वह अपने-आपको अक्षम पा रहा है. अब तक ग़रीब देश भयमिश्रित आदर से पश्चिम के विशेषज्ञों की राय और आलोचना को सुनते थे; अब उन्हें मालूम हो गया है कि तथाकथित सर्वज्ञान सम्पन्न विशेषज्ञों ने उनके साथ छल किया है. जिनको उन्होंने देवता समझा था, वे मिट्टी के माधो निकले. जिस विकास और उन्नति के स्तर का वायदा था, वह नहीं मिला. इसलिए स्वाभाविक है कि आज तीसरी दुनिया के देश अपनी आवाज सुनना चाहते हैं और एक वैकल्पिक मार्ग अपनाना चाहते हैं जिससे वे अपने भविष्य का निर्माण कर सकें.
कुछ देशों ने विकास का दूसरा रास्ता चुना, यह क्रान्ति का मार्ग था. मार्क्स और लेनिन के मूल-भूत सिद्धान्तों पर चलते हुए, इन देशों ने सत्ता के वर्ग आधार को ढहा देने का प्रयास किया और सामाजवादी आधार पर अपने समाज की पुनर्रचना करने का प्रयत्न किया. सोवियत संघ में यह किया जा चुका था और वही इसकी प्रेरणा थी. इन देशों को कुछ अंश में राजनीतिक समर्थन, आर्थिक सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन उन देशों से प्राप्त होता रहा जिनसे उनकी वैचारिक समरूपता थी. अधिकांश देशों ने क्रान्ति के मार्ग और क्रान्तिकारी समाज-संरचना की दिशा में विभिन्न विकल्पों का निर्माण किया. ये विकल्प क्रान्तिकारी राष्ट्रनिर्माण की मूल मुख्यधारा से भिन्न थे. क्रान्तिकारी धारा में शामिल होने वाले देशों ने अपने अलग-अलग रास्ते चुने और साथ ही इस धारा के पहले के सफल अनुभवों का लाभ भी लिया. इन देशों में किसी ने भी अपनी परम्परा को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया, परन्तु परम्परा के उन तत्त्वों को अवश्य तोड़ा जो उनकी दृष्टि में प्रगति के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करते थे. एशिया में एक बड़े देश-चीन-ने सतत क्रान्ति की राह को चुना, जिसका अर्थ था कि चल रही प्रगति धारा का लगातार आकलन होता रहे और साथ ही गतिरोधकों की पहचान भी होती रहे. यह प्रयास केवल नया समाज ही नहीं, नया मानव बनाने का था.
तीसरा रास्ता है ऐसा संस्थात्मक ढाँचा बनाने का जो देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक यथार्थ के अनुरूप हो. इन देशों ने सोचा कि पूर्ण और खुला लोकतन्त्र उनकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता, इसलिए आवश्यक था कि राजनीतिक संस्थाओं के ढाँचे में परिवर्तन किया जाए. उन्होंने या तो नियन्त्रित लोकतन्त्र के रूप को चुना या सैनिक तानाशाही को अपनाया. इन देशों में नये राजनीतिक समीकरणों को मान्यता दिलाने या सही सिद्ध करने का प्रयास हुआ. उनका औपचारिक रूप कोई भी रहा हो, उनकी नीतियों में एक विचारात्मक झुकाव था. कुछ ने क्रान्तिकारी और मूलभूत सुधारवाद का प्रतिरूप प्रस्तुत किया और समतावादी लक्ष्यों की घोषणा की, परन्तु उनका विकास का अन्तर्निहित दर्शन भी पश्चिमी मॉडल से प्रभावित था. प्रयास किया गया कि जातीय़ तथा क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएँ समाप्त हों और समग्र राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न हो. परम्परा, विशेष रूप से धर्म से जुड़ी भावनाओं का उपयोग लोगों को जोड़ने के लिए किया गया. परम्परा के किसी भी रूप-धर्म, सामाजिक संरचना तथा जीवन-मूल्य को तोड़ने का प्रयास नहीं किया गया. यह आशा की गयी कि आर्थिक विकास से लोगों के दृष्टिकोणों और जीवन-मूल्यों में परिवर्तन हो जाएगा. इन देशों में विकास प्रक्रिया पर समाज के विशिष्ट प्रभावशाली वर्ग का वर्चस्व रहा. क्रान्तिकारी घोषणाओं के बावजूद विकास का अधिकांश लाभ समाज के विशिष्ट अल्प वर्ग को मिलता रहा. इसका प्रमाण नहीं मिलता कि उन्होंने अपने अनुकूल प्रौद्योगिकी अपनाने का या उपलब्ध प्रौद्योगिकी को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास किया हो. जीवन के स्वरूप तथा सामाजिक सम्बन्धों के गठन, दोनों के बारे में भविष्य की योजना के खाकों के रंग धुँधले रहे.
--------------श्यामाचरण दुबे, परम्परा और परिवर्तन से साभार
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1 comment:
श्यामाचरण जी की यहाँ प्रस्तुति
बहुत अच्छी लगी. इस विषय में
उनकी विशेषज्ञता सर्व विदित है.
यह आलेख सहज भाषा में,
विकास की अवधारणा
और उसके प्रादर्शों
को समझने का
पथ प्रशस्त करता है.
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आभार
डा.चंद्रकुमार जैन
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