Saturday, June 7, 2008
मानव मूल्य
जब हम मानव मूल्य की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य क्या है, यह समझ लेना आवश्यक है. अपनी परिस्थितियाँ, इतिहास-क्रम और काल-प्रवाह के सन्दर्भ में मनुष्य की स्थिति क्या है और महत्त्व क्या है-वास्तविक समस्या इस बिन्दु से उठती है. समस्त मध्यकाल में इस निखिल सृष्टि और इतिहास-क्रम का नियन्ता किसी मानवोपरि अलौकिक सत्ता को माना जाता था. समस्त मूल्यों का स्रोत्र वही था और मनुष्य की एक मात्र सार्थकता यही थी कि वह अधिक से अधिक उस सत्ता से तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा करे. इतिहास या काल-प्रवाह उसी मानवोपरि सत्ता की सृष्टि था-माया रूप में या लीला रूप में.
ज्यों-ज्यों हम आधुनिक युग में प्रवेश करते गये त्यों-त्यों इस मानवोपरि सत्ता का अवमूल्यन होता गया. मनुष्य की गरिमा का नये स्तर पर उदय हुआ और माना जाने लगा कि मनुष्य अपने में स्वत: सार्थक और मूल्यवान् है-वह आन्तरिक शक्तियों से संपन्न, चेतन-स्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वत: निर्णय लेने वाला प्राणी है. सृष्टि के केन्द्र में मनुष्य है. यह भावना बीच-बीच में मध्यकाल के साधकों या सन्तों में भी कभी-कभी उदित हुई थी, किन्तु आधुनिक युग के पहले यह कभी सर्वमान्य नहीं हो पायी थी.
लेकिन जहाँ तक एक ओर सिद्धांतों के स्तर पर मनुष्य की सार्वभौमिक सर्वोपरि सत्ता स्थापित हुई, वहीं भौतिक स्तर पर ऐसी परिस्थितियाँ और व्यवस्थाएँ विकसित होती गयीं तथा उन्होंने ऐसी चिन्तन धाराओं को प्रेरित किया जो प्रकारान्तर से मनुष्य की सार्थकता और मूल्यवत्ता में अविश्वास करती गयीं. बहुधा ऐसी विचारधाराएँ नाम के लिए मानवतावाद के साथ विशिष्ट विशेषण जोड़कर उसका प्रश्रय लेती रही हैं. किन्तु: मूलत: वे मानव की गरिमा को कुण्ठित करने में सहायक हुई हैं और मानव का अवमूल्यन करती गयी हैं.
सांस्कृतिक संकट या मानवीय तत्त्व के विघटन की जो बात बहुधा उठाई जाती रही है, उसका तात्पर्य यही है कि वर्तमान युग में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं जिसमें अपनी नियति के, इतिहास-निर्माण के सूत्र मनुष्य के हाथों से छूटे हुए लगते हैं-मनुष्य दिनोंदिन निरर्थकता की ओर अग्रसर होता प्रतीत होता है. यह संकट केवल आर्थिक या राजनीतिक संकट नहीं है वरन् जीवन के सभी पक्षों में समान रूप से प्रतिफलित हो रहा है. यह संकट केवल पश्चिम या पूर्व का नहीं है वरन् समस्त संसार में विभिन्न धरातलों पर विभिन्न रुपों में प्रकट हो रहा है.
_____________________ धर्मवीर भारती, मानव मूल्य और साहित्य से साभार
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2 comments:
मानव मूल्य समय या परिवेश से प्रभावित नहीं होते. जो प्रभावित होकर बदल जाते हैं वह मानव मूल्य नहीं हैं. हमारे सोच, बचन और कार्य से किसी को दुःख न पहुंचे, यह एक मानव मूल्य है. यह किसी समय और किसी परिवेश में बदल नहीं सकता. समय-समय पर इस का उल्लंघन होता रहा है. आज भी हो रहा है. मानव कितना ही हिंसक क्यों न हो जाए, "किसी को दुःख न पहुंचाना" मानवीयता की पहचान बना रहेगा. मानवीय मूल्यों का कभी अवमूल्यन नहीं होता, अवमूल्यन होता है मानवीय व्यवहार का.
मूल्य के संदर्भ में अवमूल्यन क्या है?
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