Wednesday, June 25, 2008

स्त्री की अस्मिता






आजकल सारी दुनिया में ‘नारीवाद’ शब्द लोगों को चौंका रहा है. औरतों की आजादी के आंदोलन को नाना प्रकार की प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है. चिली, नामीबिया, पेरू, बांग्लादेश, केन्या, रूस, पूर्वी यूरोप के देशों, कैथोलिक चर्च और हिंदू परंपरावादियों की नजर में नारीवाद अनैतिक आचरण का पर्याय है. जमीन से जुड़े आंदोलनकर्ताओं के अनुसार, विशेषकर पूर्वी यूरोप के वामपंथियों के अनुसार नारीवाद मात्र एक बुर्जुआ विचार है. हालत यह है कि स्त्री अधिकारों की प्रबलतम समर्थकों के एक हिस्से ने भी नारीवाद को खारिज कर दिया है. मगर ऐसा क्यों हो रहा है? इस सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे विभिन्न विचारधाराओं और राष्ट्रीय आंदोलनों की रोशनी में रखकर देखना होगा.

कई स्त्रियों के अनुसार नारीवादी विचारधारा का स्रोत्र पश्चिम रहा है. अर्थात भारतीय संदर्भ में यह एक आयातित विचारधारा है और इस विचारधारा की पैरोकार श्वेत पश्चिमी मध्यवर्गीय स्त्रियाँ हैं. समझा जाता है कि इन श्वेतांग स्त्रियों की जीवन-शैली, परंपरा एवं मूल्यबोध से तीसरी दुनिया की औरतों को क्या लेना-देना! इस दुनिया के तो पुरुष ही स्वतंत्र नहीं हैं, तब भला औरत क्या मुक्त होगी? समस्या यह है कि एक तरफ तो नारीवाद अपने पश्चिमी मूल के कारण विवादग्रस्त हुआ है और दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता और पहचान की उसकी विचारधारा, रणनीति और परियोजना विशिष्ट किस्म की है. इस विशिष्टता के कारण भ्रम यह होता है कि मुक्तिकामी मानवाधिकार के लिए किए जानेवाले अन्य आंदोलनों से नारियाँ नहीं जुड़ पायी हैं. इसी सिलसिले में यह भी मान लिया जाता है कि नारीवाद अराजक मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है, सामाजिक व्यवस्था की चूलें हिलाकर रख देना चाहता है और इस विचारधारा से प्रभावित स्त्रियाँ पुरुषों से नफरत करने लगती हैं. दरअसल ये सभी धारणाएँ भ्रामक हैं. नारीवाद एक विचारधारा और जीवन-शैली है. चूँकि स्त्री भी सोचना-समझना जानती है इसलिए मानवाधिकार की विचारधारा और उससे प्रभावित आंदोलन स्त्री-जीवन के लिए परिवर्तनकामी है. नारीवाद पर पड़े प्रभावों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि युग धर्म के अनुसार प्रचलित विचारों से स्त्री विचारक भी प्रभावित होती हैं. वे उन विचारधाराओं का विश्लेषण करके उन्हें अपने पक्ष में मोड़ना चाहती हैं.

महान चिंतकों के विचारों को स्त्री जब कार्यरूप में परिणत करना चाहती है तो उस दौरान उसे अपने जीवन के प्रसंग में इन विचारों की सीमा, उनकी अंतर्निहित पुरुष-केन्द्रीयता और स्त्री-द्वेष भी समझ में आता है. पुरुष-जीवन निजी और सार्वजिक दायरों में स्पष्ट रूप से बँटा हुआ है. सामाजिक मंचों पर नारी स्वतंत्रता की वकालत करनेवाला पुरुष जब घर में अपनी पत्नी को प्रताड़ित करता है तो उसे ऐसा करने की सुविधा इसी बँटवारे के कारण मिल पाती है. जाहिर है कि जब स्त्री व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को, सार्वजनिक जीवन को उधेड़ना शुरू करेगी तो पुरुष-समाज को लगेगा कि निजी और सार्वजनिक दायरों में अंतर्विरोधी आचरण की सुविधा से वंचित हुआ जा रहा है. इस तरह नारीवाद निजी और सार्वजनिक से स्थापित विभाजन को बदलने की कोशिश करके पुरुष विरोधी होने के आरोप को नियंत्रित करता है. कहा जाता है कि नारीवाद पारिवारिक मूल्यहीनता को प्रश्रय देता है. या फिर वह पारिवारिक संरचनाओं को तोड़ देना चाहता है. वास्तविकता कुछ और है. अगर पारिवारिक संरचनाएँ मानवीय हैं तो अपनी वैचारिक संभावनाओं सहित नारीवाद परिवार और समाज के मानवीय मूल्यों को नष्ट करने के बजाय बचाना चाहेगा. वह पारंपरिक समाज-व्यवस्था को परिवर्तित जरूर करना चाहता है और बदलाव को टूटना तो नहीं कहा जा सकता. परिवार स्त्री की सबसे पुख्ता जमीन है. यदि इस जमीन पर खड़े होकर वह यथास्थिति के परिवर्तन के पक्ष में है और अन्य व्यापक सामाजिक जिम्मेदारियों को स्वीकारना चाहती है, तो इसे गलत क्यों कहा जाना चाहिए?

यह भी कहा जा रहा है कि बहनापे की अवधारणा बहुलतावादी दौर में पूरी तरह खटाई में पड़ चुकी है. वास्तविकता यह है कि इसी अवधारणा के चलते मार्गन जैसी चिंतक जमीन से जुड़े हुए स्त्री-आंदोलनों पर विमर्श पेश करने की कोशिश करती हैं. उनका तर्क है कि स्त्री एक वैश्विक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरती जा रही है. मार्गन के अनुसार चूँकि पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना ने हर देश की जमीन घेरी है इसलिए राष्ट्रीय संरचना पर पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी हो जाती है, इसलिए इसके विरोध को सार्वभौम घटना के रूप में लिया जाना चाहिए. मार्क्सवादी विचारधारा भी पितृसत्ता के इस वर्चस्व से अछूती नहीं है. मार्क्सवादी राज्य एक तरफ स्त्री-हितों और उसके मानवीय पक्ष की पूरी तरह वकालत करता है लेकिन स्त्री के संदर्भ में राजकीय हस्तक्षेप के बावजूद स्त्री-आंदोलन की अलग पहचान स्वीकारने में असमर्थ रहता है. आधी दुनिया होने के कारण स्त्री की मुक्ति बहुसंख्यक जनता की मुक्ति की पर्याय समझी जानी चाहिए. दमन और शोषण के खिलाफ लड़ी जानेवाली अलग-अलग लड़ाइयों में स्त्री भी शामिल है लेकिन स्त्री-शोषण की अलग से चर्चा अनिवार्य है. वरना होता यह है कि वैचारिक स्तर पर मानवमुक्ति की चर्चा में चिंतक, दार्शनिक, विचारक और सामाजिक शोधकर्ता मान लेते हैं कि सबकी मुक्ति में स्त्री की मुक्ति भी शामिल होगी इसलिए अलग से स्त्री-हित की चर्चा की कोई तुक नहीं है.

इस पुस्तक में मैंने दार्शनिक विचारधाराओं की चर्चा की है जिनका मुझ पर प्रभाव पड़ा. इन विचारधाराओं को पढ़ते हुए मुझे यही लगा कि पुरुष होने की प्रक्रिया और स्त्री होने की प्रक्रिया में मौलिक अंतर है. पुरुष को पूर्वानुमानित रूप से व्यक्ति मान लिया जाता है पर स्त्री को यह स्वीकृति नहीं मिलती. देकार्त ने जब ऐलान किया था कि मैं सोचता हूँ इसलिए मेरा अस्तित्व है तो देकार्त का ‘मैं’ पहले तो उनका ‘मैं’ रहा और फिर उसमें अन्य पुरुषों का ‘मैं’ समाता गया. देकार्त के चिंतनशील ‘मैं’ का दायरा फैलता चला गया. पर क्या देकार्त के इस बृहदाकार ‘मैं’ में स्त्री शामिल थी? आखिर उसमें स्त्री क्यों नहीं शामिल होनी चाहिए थी? आखिर आदमी/इंसान/व्यक्ति में स्त्री-पुरुष दोनों ही निहित हैं. अत: देकार्त के अनुसार स्त्री भी कह सकती है कि मैं सोचती हूँ इसलिए मैं हूँ, मेरा अस्तित्व है. चिंतन करना व्यक्ति के युक्तिपरक होने का सबूत है. अपनी इस सामर्थ्य के कारण तो व्यक्ति जानवर से भिन्न होता है. बुद्धि एक सार्वभौम गुण के रूप में उभरती है जिसके कारण जानवर और इंसान की भिन्नता कायम रहती है. लेकिन स्त्री ने जब इस गुण का इस्तेमाल करते हुए अपने आप से, अपने परिवेश से और पुरुष की सत्ता से पूछा कि ‘क्या मैं इंसान हूँ?’ ‘क्या मेरी भी कोई मानवीय गरिमा है?’ तो उसे जो जवाब मिला वह कुछ और था. उसकी समझ में आ गया कि इंसान की श्रेणी में तो पुरुष है, स्त्री तो एक संपूरक भर है.

बहरहाल, अपनी दावेदारियों के साथ जैसे ही स्त्री ने अपने सारगुण, स्त्रीत्व, पर ध्यान केन्द्रित किया, वैसे ही उसे दिखाई पड़ा कि इस सारगुण के बावजूद, स्त्री और स्त्री में वर्ग, वर्ण और जाति की विविधताएँ हैं, रंग-भेद है उसे एक-दूसरे से विलग करती हुई राष्ट्रीय सीमाएँ हैं. सवाल उठा कि जिस स्त्री की चर्चा की जा रही है वह कौन है? किस जाति की और किस वर्ग की है? इस विविधता के कारण स्त्री से कहा गया है कि अलगाववादी चिंतन का परिणाम अच्छा नहीं होता और पहचान की राजनीति हीनभावना से प्रेरित होती है. यह भी कहा गया है कि केंद्र में आने की, मुख्यधारा में शामिल करने की माँग एक बचकानी माँग है क्योंकि केंद्र हैं ही कहाँ? केंद्र तो महज भाषा द्वारा निर्मित एक संकेतक-भर है. परिधि भी तो स्वयं में एक केंद्र है. स्त्री-पुरुष के बीच ऐसी कोई भी तो एक भेदक रेखा नहीं खींची जानी चाहिए. तर्क दिया गया है कि भेदक रेखा में जो स्पेस है वहाँ भी तो एक भेदक रेखा है. अत: ऐसी कोई भेदक रेखा होती नहीं.

भेदक रेखा तो बनती-मिटती रहती है, इसके लिए व्यर्थ परेशान होने की क्या जरूरत! स्त्री ने जब इन तर्कों को कसौटी पर कसा तो पाया कि उसका शोषण और दमन काल्पनिक नहीं, यथार्थ है. जिस भेद-भाव का स्त्री को अनुभव होता है, वह केवल भाषागत संरचना नहीं है. स्त्री को उसकी अधीनस्थता को इस कदर आत्मसात करा दिया गया है कि सत्ता की दमन कारी गतिविधियों को वह स्वीकारने लगी है. परंपरा ने उसे स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीतिक स्वतंत्रता और राजनैतिक भागीदारी और यहाँ तक कि व्यक्तिबोध जैसे मूलाधिकारों से भी वंचित रखा है. सत्ता द्वारा नियोजित यह वंचना ही स्त्री को राष्ट्र के दायरे में अपनी पहचान सीमित करने के खिलाफ विद्रोह का आधार प्रदान करती है. ये तमाम तर्क अनुचित साबित होते हैं कि स्त्री-मुक्ति की माँग जैसी अलगाववादी घटना न तो कभी हिंदू अतीत में घटी है और न ही हिंदू परंपरा में स्त्री कभी इतनी गुलाम रही है. यही हिंदुत्ववादी तर्क आगे बढ़कर कहता है कि स्त्री तो महाशक्ति के प्रतीक के रूप में पूजित है. बिना शक्ति के शिव तो महज शव हैं.

अत: नारी-मुक्ति की इन चर्चाओं के मूल में पश्चिम की अपसंस्कृति है. नैतिक स्तर पर ये पश्चिमी स्त्रियाँ हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से अनभिज्ञ हैं और नैतिक-अनैतिक में भेद करने में असमर्थ हैं. स्पष्ट है कि स्त्री के संदर्भ में हिंदुत्व के ये सभी तर्क उसकी पहचान को राष्ट्र में सीमित करने के उपक्रम मात्र हैं. एक बार फिर स्त्री को राष्ट्रीयता बनाम साम्राज्यवाद के द्वित्व में से किसी एक को मानने के लिए मजबूर किया जा रहा है. जैसे ही वह राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघने का प्रयास करती है, उस पर पश्चिमीकरण का आरोप जड़ दिया जाता है. नारी-मुक्ति की विचारधारा इस तरह के आरोपों की हमेशा से शिकार रही है. दरअसल, चाहे प्राचीन हो या अर्वाचीन, प्राच्य हो या पश्चिम, राष्ट्र हो या जातीयता, एक की कीमत पर दूसरे को जायज ठहराना या फिर तुलनात्मक रवैया अपनाना सत्तात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है. द्वंद्वात्मकता अनिवार्यत: एकत्वीकरण के सारे प्रयासों को बहुलता की स्वीकृति में परिणत कर देती है.

इसी मोड़ पर मुझे दांते द्वारा नरक के वर्णन का एक अंश याद आता है. नरक के दरवाजे पर पापात्माओं की भीड़ लगी थी और वे अपने-अपने झुंड़ों को कभी दायें तो कभी बायें हिला रहे थे. लेकिन वे साथ बैठकर किसी भी नैतिक या राजनीतिक मुद्दे पर बातचीत करने में असमर्थ थे. दांते का कहना है कि अपनी राय देने में कुछ कहने में असमर्थ लोग तो इतने जघन्य हैं कि नरक में भी प्रवेश के अधिकारी नहीं हैं. वे अपने कहे की जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहते. ऐसे लोग अपने किसी विचार पर टिकते भी नहीं. स्त्री की समस्याओं के संदर्भ में यह मनोवृत्ति और भी स्पष्ट होकर उभरती है. क्योंकि स्त्री समस्या स्पष्ट पक्षधरता की माँग करती है. राष्ट्र की सीमाएँ इसमें आड़े नहीं आनी चाहिए.

स्त्री का सवाल और राष्ट्रीय एकता का सवाल एक दूसरे के खिलाफ रखकर नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन ध्यान रहे कि स्त्री हो या पुरुष, पक्षधरता के कारण यथास्थिति से मिलने वाली सुविधाओं को छोड़ना पड़ता है, कीमत देनी पड़ती है जिसके लिए कोई तैयार नहीं है. स्त्री के हक सर्वसम्मति से नहीं दिये जा सकते. समकालीन जगत में स्त्री का प्रसंग एक नैतिक जिम्मेदारी की माँग करता है. आँकड़े उठाकर देख लीजिए: शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, रोजगार और व्यापार-जगत, हर जगह स्त्री-श्रम की कीमत पुरुष-श्रम से कम है. क्या इस आधार पर जनतांत्रिक मूल्यों का विकास संभव है? कार्य-जगत में यौन भेद-भाव और यौन-हिंसा भी कम नहीं है. स्त्री को पुरुष की तरह वोट का अधिकार है. पर स्त्रियों का प्रतिनिधित्व पुरुष वर्ग ही करना चाहता है. राजनीतिक जीवन में स्त्री की सक्रिय भागीदारी नहीं है. दुनिया के सारे सांसदों का दस प्रतिशत हिस्सा ही स्त्रियाँ हैं और केवल चार प्रतिशत स्त्रियाँ मंत्रालयों में हैं. केवल गरीबी ही स्त्री के लिए बाधक नहीं है. गरीब तो पुरुष भी है, अर्थाभाव तो वह भी झेलता है, जातिवाद का शिकार भी वह है. मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परंपराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट है. ये परंपराएँ स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण-पोषण सौंपती हैं. मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे नि:शुल्क सेवा लेती हैं और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा-मंडन कर अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर लेती हैं. स्त्री भूखी है या मर रही है, इसकी चिंता किसी को नहीं होती.

पितृसत्तात्मक परंपरा ने निश्चित कर रखा है कि अधिक से अधिक शिक्षा पुरुष को मिलनी चाहिए, क्यों कि उसे कमाना है. उसे पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए क्योंकि उसके श्रम की कीमत है. पुरुष को इसलिए राजनीतिक चुनाव का अधिकार दिया गया है क्योंकि भेद-भाव करने और दूसरों का शोषण करने के मामले में वह ज्यादा ताकतवर साबित होता है. साथ ही वह अपने से भिन्न को नियंत्रित करने की क्षमता भी रखता है. यहाँ तक कि विरोध और विद्रोह की अपेक्षा भी पुरुष से अधिक की जाती है. स्त्री के विरोध से सत्ता चौंकती है. गुजरात के दंगों में जब स्त्रियों ने लूटपाट मचाई, तो अधिकतर पुरुषों की नजर में यह चौंकानेवाली घटना थी कि ऐसा जघन्य काम पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने कैसे किया! टिप्पणी की गई कि देखिए हमारी स्त्रियाँ कितनी नीचे जा रही हैं! क्या होगा हमारे धर्म का? कौन रक्षा करेगा हमारी जातीय अस्मिता की? आखिर स्त्री माँ है, संतति के भरण-पोषण की पूरी जिम्मेदारी उसी की है. विडंबना यह है कि स्त्री से नैतिक जिम्मेदारी की माँग करनेवाला समाज उसे आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर निर्णय के अधिकार से वंचित रखना चाहता है. जिसे अधिकार ही नहीं मिला उससे जिम्मेदारी की माँग क्यों की जा रही है? जो खुद गौण, दोयम और अधीनस्थ है, वह कैसे दूसरों के प्रति अपनी जिममेदारी निभायेगा?

दूसरे, संस्कृति के संदर्भ में सार्विकता एवं बहुलता की अवधारणा का स्पष्टीकरण जरूरी है. बहुसंस्कृतिवाद का अपना जोखिम है जिससे फिलहाल बचा नहीं जा सकता. फासीवादी संस्कृति के मूल्य स्त्री द्वारा स्वीकारे नहीं जाने चाहिए. गुजरात की हिंदू स्त्रियों ने मुसलमान स्त्री के साथ जो किया वह फासीवादी सांस्कृतिक मूल्यों का स्त्री-वर्ग द्वारा किया गया वरण है. क्या स्त्री के लिए कोई निरपेक्ष सार्विक प्रतिमान हासिल नहीं किया जा सकता? आलोचनात्मक सार्विकता के आधार पर प्रत्येक स्त्री-पुरुष के जीवन की गुणवत्ता को मापना संभव है. लेकिन आलोचनात्मक सार्विकवाद हमें परंपरा के इतिहास के प्रति संवेदनशील जरूर बना सकता है, मगर उसी हद तक जहाँ तक वह परंपरा स्त्री के विकास में सहायक हो, ताकि जीवन की गुणवत्ता और परंपरा के संबंध का आकलन करना संभव हो सके.

आलोचनात्मक सार्विकता स्थापित भूगोल की सीमा स्वीकारने के लिए कभी तैयार नहीं होगी. राष्ट्रवाद की अपनी सीमा है. राष्ट्रवाद चाहे फासीवाद द्वारा प्रचारित किया जा रहा हो या फिर चाहे वह कोई दमनकारी राष्ट्रवाद हो या किसी वर्ग विशेष का राष्ट्रवाद हो, वह अंतत: पहचान का दर्शन है. परिधि से उबरने की कोशिश में लगी हुई स्त्री को राष्ट्रवाद की जरूरत कुछ समय के लिए पड़ सकती है. राष्ट्रवाद के जरिए स्त्री को अन्य संस्थापितों के बीच पहचान मिलती है. पर यह तो पहला कदम ही हो सकता है. इसे आखिरी मंजिल तो नहीं कहा जा सकता. राष्ट्रवाद स्त्री को मजबूर करेगा कि वह केवल अपनी सांप्रदायिक, जातीय और वर्गीय पहचान और संसकृति को पुख्ता करे. इस प्रक्रिया में कई समस्याएँ हैं. 11 वीं शताब्दी का उपनिवेशवाद प्राचीन ब्रह्मणवाद की भौंडी नकल रहा है. उसने निचली जातियों को हीन बताकर मानव-संस्कृति की भव्यता और औदार्य से उन्हें वंचित रखनेवाली समाज-व्यवस्था को बदलने की चेष्टा नहीं की. हिंदू जब यह कहता है कि उसे पहले हिंदुत्व की रक्षा करनी है या केवल अपना जातीय साहित्य पढ़ना है, तो राष्ट्रवाद के नाम पर पहचान की राजनीति उभरती है. पहचान की राजनीति का एक दूसरा पहलू भी है. यह राजनीति स्त्री-मुक्ति आंदोलन को आत्मग्रस्त करेगी, सीमित करेगी. वह स्त्री खोयेगी ज्यादा, पायेगी कम। घेटो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हो या मदरसे का, जीवन के वैविध्य की ओर उनका ध्यान नहीं जा पायेगा. यदि भिन्नताएँ आपस में टकराती हैं, तो इन भिन्नताओं के साथ चलना सीखना होगा. उनका आपसी संवाद निरंतर होना ही चाहिए. स्त्री या दलित अपनी मूक खामोशी में भी बहुत कुछ बोलते हैं. सत्ता अपनी ऊँचाई से ऐसे खोखले नारे लगाती है, जो हमारी समझ से बाहर होते हैं. स्त्री सत्ता का विरोध करती है मगर विरोध के पीछे वह सत्ता की आकांक्षा नहीं रखती. उसे तो सत्ता से अलग हटकर और एक बेहतर दुनिया की खोज करनी है. महज आत्मश्लाघा और मुग्ध आत्मरति से कुछ नहीं मिलनेवाला. बल्कि स्वतंत्रता और मानवीयता की खोज अंतहीन होनी चाहिए, आकाश की अनंतता की तरह.

मान्यता है कि इंसान होने की पहली पहचान है किसी राज्य का नागरिक होना. तब क्या मानवाधिकार का सबसे सुरक्षित गढ़ राष्ट्रवाद है? क्या राष्ट्र की आलोचना करनेवाला देशभक्त नहीं हो सकता? स्त्री के अधिकारों की चर्चा करने पर पूछा जाता है कि वह किस राष्ट्र की नागरिक है? उसका धर्म, उसकी जाति, उसका संप्रदाय क्या है? इन सवालों का जवाब यह है कि नारीवाद को राष्ट्रीय सीमा में बंद नहीं किया जा सकता. सिद्धांत और विमर्श को इतिहास और व्यवहार से अलग करना होगा. राष्ट्रवाद से इतर यह कोई अकेली चीख नहीं होगी. बल्कि इसमें वैयक्तिकता की सामूहिक अवधारणा पर ध्यान दिया जाएगा. उन संबंधों से जुड़ने की प्रक्रिया से पहचान निर्मित होती है जिनके मूल में स्त्री का निजी और विशिष्ट इतिहास रहता है. साथ ही जुड़ी होती है स्त्री आंदोलन की सामूहिक राजनीति. स्त्री की पहचान बिखरी हुई भी हो सकती है, संबंधवाचक एवं सामूहिक भी. लेकिन स्त्री को पुरुष द्वारा अभिव्यक्त सांस्कृतिक आदर्शों की आलोचना करनी सीखनी होगी. स्थापित प्रतिमाओं के पीछे छिपी हुई सत्ता की नीयत को पहचानना होगा. स्त्री को अपने से भिन्न अन्य वर्ग, जाति और राष्ट्र की स्त्री-पुरुषों के संबंधवाचक संपर्क बनाने होंगे. चाहे वामपंथ हो या दक्षिणपंथ, भूमंडलीय स्तर पर अब तक की राजनीतिक प्रक्रियाओं में स्त्री-प्रसंग में हमेशा विरोधाभासी विपर्यात्मक एवं विशिष्ट अर्थमयता ही प्रचलित रही है. जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि एक-दूसरे के बरखिलाफ जोड़ियों में सोचना ही चिंतन का तरीका रहा है. किंतु अब हमें यह या वह स्त्री या पुरुष, सक्रिय या निष्क्रिय, युक्तिसंगत या भावनात्मक आदि द्वित्वों का अतिक्रमण करते हुए किसी एकल व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने के बजाय स्त्री-पुरुष को साथ-साथ रखते हुए दोनों की अपनी-अपनी पहचान के साथ जीना सीखना होगा.

एक समूचेपन की व्यवस्था करनी होगी. जो है, उसमें थोड़ा और जुड़ेगा. स्त्री को वैज्ञानिक आलोचना की पद्धति सीखनी होगी, ताकि अन्य आंदोलनों की सक्रियता में वह जाने-अनजाने स्त्री-मुक्ति के लक्ष्यों की अपेक्षा न कर बैठे. स्त्री कहीं अपने वर्गीय हितों को अपने राजनीतिक स्वार्थों के तहत गौण न बना दे. स्त्री स्थानीय संघर्ष कर रही है भूमंडलीय स्तर पर भी वह संघर्षरत होगी, एक समग्र दृष्टिकोण अपनायेगी. एक ओर यदि स्थानीय परंपरा, सापेक्षिक नैतिक मूल्यों एवं सांस्कृतिक विरासत की समस्या है तो दूसरी ओर स्त्री को संस्कृतियों की सीमाओं के पार छानबीन और अन्वेषण करना होगा ताकि उसके आलोचनात्मक रुख से एक ऐसा वैश्विक दृष्टिकोण विकसित हो सके जिसके जरिए अपनी छद्म चेतना को बदलने में वह सक्षम हो सके. इस तरीके से न स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा होगी और न ही स्थानीय सीमाओं में कैद होकर रह जाना होगा.

बहुलता की माँग की वजह से स्त्री-जीवन भिन्न-भिन्न आवाजों से निर्देशित होता रहा है. पर बहुलता का अर्थ अलग-अलग खाँचों में बंद सांस्कृतिक मूल्यबोध नहीं है. संस्कृति के ऊपर है मनुष्यता, जो स्त्री को अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है. यदि होती तो दुनिया में इतना आतंक नहीं फैलता. स्त्री तो मनुष्य बनने की प्रक्रिया में है, उस ओर अग्रसर है. प्रत्येक स्त्री की अपनी-अपनी क्षमता है, सांस्कृतिक सामर्थ्य है. बहुलता की अवधारणा का समर्थन हमें एक कारगर संवाद की तरफ ले जाता है. यदि स्त्री-हितों की चर्चा की जी रही है तो प्रत्येक मानव स्त्री की बात हमें करनी होगी. स्त्रियों में जितनी भी बहुलताएँ हैं, उन्हें खुद को एक-दूसरे के समकक्ष समझना होगा और यदि हममें से अन्य कोई भी स्त्री शोषित होती है, हिंसा का शिकार होती है तो मानवीय मूल्यों का तकाजा है कि उस पर ध्यान दिया जाए ताकि इस मानव (और स्त्री) के प्रति नया दृष्टिकोण विकसित हो सके. स्त्री के प्रति अब तक मानवीय दृष्टिकोण निर्मित नहीं हो सका है. इन मुद्दों पर केवल पुरुष ही गौर करते रहे.

स्त्री यदि एक बार अपनी समस्याओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण निर्मित कर पाती तो पितृसत्तात्मक धार्मिक एवं सांस्कृतिक योजनाएँ स्वत: खारिज हो जातीं. दलित एवं शोषित अपने बारे में सही निर्णय लेने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि लंबे समय तक अधीनस्थ रहने की वजह से उन्होंने सत्ता के मूल्यों को इतना आत्मसात कर लिया है कि उनकी आलोचनात्मक क्षमता कुंद हो गयी है. इसीलिए आत्माभिव्यक्ति को और तराशने की जरूरत है. स्त्री अपनी पक्षधरता अवश्य विकसित करे और बोले, मगर उसका वक्तव्य आत्मरति से ग्रस्त न हो. यही कारण है कि स्त्री को आज मानव-मूल्यों पर आधारित शिक्षा की वकालत करनी है ताकि चिंतन का स्तर और विकसित हो, व्यक्ति की सोच स्थानीय सीमाओं से बाहर निकले, वह धार्मिक मतान्धता की शिकार न हो. हाँ, उस प्रक्रिया में वैकल्पिक जीवन-मूल्यों का संकेत जरूर मिले ताकि बिना किसी दबाव और भय के वह शिवम् की अवधारणा विकसित कर सके.

-----------प्रभा खेतान, उपनिवेश में स्त्री (मुक्ति-कामना की दस वार्ताएँ) का एक अंश

Thursday, June 19, 2008

वर्तमान धर्म-संकट








यह कहना की मानव-जाति आज इतिहास के महत्तम संकट के बीच से गुज़र रही है, एक सामान्य सत्य है. हमारी यह संकटापन्न स्थिति मानवात्मा के साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी की आश्चर्यजनक गति का समञ्जन न होने के कारण उत्पन्न हुई है. इस तथ्य के होते हुए भी कि महान् वैज्ञानिक आविष्कारों में हमें प्रकृति की दासता से मुक्त कर दिया है, हम एक प्रकार के मनोरोग से, एक प्रकार के सांस्कृति विघटन से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं. विज्ञान ने हमें पीसती हुई गरीबी के पंजे से कुछ अंश तक छुड़ा दिया है, और शारीरिक वेदना के उत्पीणन का शमन कर दिया है. फिर भी हम एक प्रकार के आन्तरिक एकाकीपन से पीड़ित हैं. समस्त विकास वेदना से आलोड़ित होता है; संपूर्ण संक्रमण दुःखान्तिका का क्षेत्र है. परन्तु यदि हमें जीवित रहना है तो आज जिस संक्रमण को क्रियान्वित करना है, वह एक ऐसी नैतिक एवं आध्यात्मिक क्रांति है जिसकी गोद में सम्पूर्ण विश्व आ जाता है.

हमने मानव-जाति के इतिहास में दूसरी क्रान्तियाँ भी देखी हैं; जब कि हमने आग जलाने की विधि का आविष्कार किया, जब हमने पहिए का अन्वेषण किया, जह हमने वाष्प का प्रयोग किया, जब हमने विद्युत का आविष्कार किया. किन्तु आणविक ऊर्जा के विकास के कारण हुई वर्तमान क्रान्ति की तुलना में ये सब अपेक्षाकृत महत्त्वहीन हो गई हैं. आणविक ऊर्जा के अविष्कार में न केवल मानवीय प्रगति की महती सम्भावनाओं को उपस्थित कर दिया है अपितु अव्यवहित एवं सम्पूर्ण विध्वंश के खतरे को भी सामने ला दिया है. यह सब पर्वतों को हिला सकती है; सुरंगें खोद सकती है; खाद्योत्पादन में वृद्धि कर सकती है; यह संसार के सम्पन्न एवं भूखे लोगों के बीच की खाई को पाट सकती है और कुछ ऐसे प्रमुख कारणों को भी दूर कर सकती है जिनको लेकर अब तक युद्ध होते रहे हैं; या फिर यह विश्व की मानव जातियों को मृत्यु और विनाश दे सकती है.

आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की बुराई करने तथा बुराई रोकने-दोनों प्रकार की शक्तियों को बढ़ा दिया है. मानवता के सामने आज नियति की चुनैती उपस्थित है. हम इस चुनौती का सामना कर सकते हैं और एक ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं जिसमें सार्वदेशिक सत्ता द्वारा प्रचारित कानून के शासन में समस्त सम्बद्ध राज्यों को विकास की स्वतन्त्रता प्राप्ति हो, या फिर यह हो सकता है कि जो महती शक्ति हमारे हाथ में है वह शस्त्रसज्जित दलों के द्वन्द्व में हम सबको ही विनष्ट कर दे.

युद्ध का मूल कारण अधिकृत क्षेत्रों का लाभ नहीं, एक-दूसरे के प्रति भय एवं घृणा है. जब तक ये बने रहेंगे, नौसन्तरण की ज़रा-सी भूल से, राडार-प्रणाली पर एक गलत छाया दिखाई पड़ने के कारण, एक क्लान्त वैमानिक एक बीमार अफसर या किसी दूसरी घटना के कारण, युद्ध छिड़ जा सकता है. राष्ट्रों के एक परिवार के रूप में रहकर, शान्ति एवं स्वतन्त्रता के बीच, एक-दूसरे के साथ सहयोग करने के मानवता के लक्ष्य तथा इस वर्तमान प्रणाली के बीच, एक-दूसरे के साथ सहयोग करने के मानवता के लक्ष्य तथा इस वर्मान प्रणाली के बीच-जिसने हमें विश्व-युद्ध दिए हैं, यान्त्रिक समाज की ओर सार्वभौम प्रगति दी है और युयुत्स भौतिकवाद दिया है-एक संघर्ष है. भविष्य अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रति हमारी वृत्तियों में तीव्र परिवर्तन की माँग कर रहा है. यद्यपि हम समझते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों के निबटारे के लिए सैनिक समाधान के विचार का त्याग करना आवश्यक है और मानव-जाति के कल्याण के निमित्त हमें अपनी राष्ट्रीय निष्ठाओं पर अंकुश रखने की आवश्यकता है, फिर भी हमारे राजनीतिक नेता वही पुरानी दुरभिसन्धियों एवं धमकियों, सौदेबाजियों और छल-छद्म को जारी रखे हुए हैं, मानो धनुष-बाण, तोप-तलवार के जीर्ण अस्त्र-शस्त्र अब भी विजयी होंगे.

सत्ता की जो राजनीतिक अन्तरशासकीय सम्बन्धों की पारम्परिक प्रणाली का ध्रुव-सिद्धान्त रही है, अब भी चल रही है, यद्यपि उसने नाना प्रकार के छद्मवेश बना लिए हैं. आणविक युग में सत्ता की राजनीति का तार्किक परिणाम जागतिक आधिपत्य नहीं, वरन् जागतिक नर-संहार होगा. यदि समर न हो तो स्वयं आणविक परीक्षण ही मानव कल्याण के विनाशक है. हमारे कुकृत्य ही मानव के सम्पूर्ण भविष्य को नष्ट कर देंगे. हमको यह स्वीकार ही होगा कि हम सैनिक पथ के अन्तिम बिन्दु पर आ पहुँचे हैं. जब काल्विन ने सर्वीतस को जलाया था तब कोस्टले ने कहा था—‘‘किसी आदमी को जलाना धर्म का रक्षण नहीं, बल्कि मनुष्य की हत्या है.’’ हम अपने चतुर्दिक् के शत्रुओं से अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं किन्तु शत्रु तो हमारे ही अन्दर है.

राष्ट्रवाद अब भी एक बड़ी ताकत है. उच्छेदक आयामों वाले विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्र-संघ (लीग ऑफ नेशंस) का जन्म हुआ. जब तोपें पुनः दहाड़ने लगीं तो संघ समाप्त हो गया. जब द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् विजय हुई तो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर (शासन-पत्र) पर हस्ताक्षर हुए. अभी वह जीवित सत्य नहीं बन पाया है. संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में भी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाएँ चलती हैं. यद्यपि वह अपने सिद्धान्त-समूह एवं मूल्य-व्यवस्था द्वारा, समस्त मानवता की शक्तियों एवं हितों के अनुकूल, एक स्वतन्त्र एवं शान्तिमय विश्व लोक-सामज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील है, उसके कार्य में संघर्षशील सत्ता-समूहों द्वारा बाधा पड़ती है. सदियों से कोटि-कोटि मानवों का पथ-दर्शन इस नारे से होता रहा है—‘हमारा देश, सही हो या गलत’ जो लोग राष्ट्रसंघ संस्थान का निरीक्षण करते हैं और राष्ट्रीय भाव-प्रवणता और शस्त्रीकरण की दौड़ पर ध्यान देते हैं वे गंभीर रूप से निराश हो जाते हैं और अनुभव करते हैं कि हमारी सभ्यता गर्त की कगार पर खड़ी है. वे कहते हैं कि इस विचार में कुछ भी असाधारण नहीं है, कि कला एवं विज्ञान, साहित्य एवं दर्शन सम्बन्धी अपनी संपूर्ण आश्चर्यजनक उपलब्धियों के साथ भी, हमारी सभ्यता उसी प्रकार विलुप्त हो जायेगी जिस प्रकार कि अतीत में और भी कितनी ही सभ्यताएँ नष्ट हो गई हैं. इक्माइरोसिस के संयमवादी (स्टोक)1 सिद्धान्त में कहा गया है कि संसार अग्नि से नष्ट हो जाएगा, स्लेट पुँछकर साफ-सुथरी हो जाएगी और एक नवीन आरम्भ होगा.’ अनेक प्रमुख धर्मशास्त्री हमें विश्व के समाप्ति-सम्बन्धी धर्मशास्त्रीय विवरणों की याद दिलाते रहते हैं और कहते हैं कि यह भगवत्-इच्छा के ही अन्तर्गत है कि मानव-जाति समाप्त हो जाए.

दुर्भाग्यवश जो लोग वैज्ञानिकमना हैं वे मानवीय घटनाओं की अनिवार्यता की बात करते हैं. हमें विश्वास कराया जाता है कि आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों का दबाव संसार को ऐसी तबाही की ओर ले जा रहा है जैसे कि यूनानी दुःखान्तिका में निर्मम नियति द्वारा सम्पन्न होती है. इतिहास की धारा कारणों एवं परिणाम की एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें मानव अनुन्मोचनीय रूप से जकड़ा हुआ है. मानव सम्पूर्णतः इतिहास की दया पर निर्भर है. मानव की आशाओं, भयों और अपेक्षाओं का भविष्य पर कोई प्रभाव नहीं. कहा जाता है कि हम अपने से अधिक बलवती शक्तियों की पकड़ में हैं. हमें बताया गया है कि बड़े-बड़े मामलों में घटनाओं के भीतर उसके मन में, उससे कहीं अधिक होता है जितना उसके अभिनेताओं के मन में होता है. सामूहिक वातोन्माद (हिस्टीरिया) कोटि-कोटि मानवों के जीवन को विनष्ट कर देता है. प्रकृतिवाद की धारा मानव-प्राणियों को साहस और पहल की ओर प्रेरित नहीं करती.
पौराणिक नियतिवाद (थियौलाजिकल डिटरमिनिज़्म) व्यक्ति से उसकी अपनी महत्ता, विशेषता छीन लेता है. ईश्वर ब्रह्माण्डीय गतिविधि को अपनी योजना द्वारा ही उसके गन्तव्य तक पहुँचता है. पुस्तक के अन्तिम पृष्ठ पहिले से ही उसके प्रथम पृष्ठों में निहित हैं.परन्तु जहाँ सर्वनाश के पैगम्बर मौजूद हैं, वहाँ आशा के प्रवक्ता भी हैं, यद्यपि वे निराशा के गर्त पर ही आशा का महल बनाते हैं. वे कहते हैं कि हम अपने अन्तः करण की खोज करके उसमें इस अणुयुग में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों का पता लगा लें. कवियों, दार्शिनिकों और पैगम्बरों में मानवीय एकता और सनातन शान्ति की बाध्यकारी दृष्टि मिलती है. राजनीतिक नेताओं में भी इसे प्रमाणित किया है. टॉम पेन ने घोषित किया है—‘‘विश्व ही मेरा देश है.’’

आधुनिक मानव की दुविधा यह है कि यद्यपि वह जीवन से निराश है, किन्तु मरना नहीं चाहता. जीवित रहने की मूलवृत्ति हमें आशा देती है. जिस शत्रु से हमें लड़ना है, वह पूँजीवाद अथवा साम्यवाद नहीं है, वह हमारी अपनी बुराई है, हमारी आध्यात्मिक अन्धता, सत्ता के प्रति हमारी आशक्ति और प्रभुत्व के लिए हमारी वासना है. 1945 ई. में एक निराशावादी नृतत्त्वविज्ञानी ने कहा था कि बन्दर के हाथ में अणुबम जैसा अस्त्र देना सभ्यता के विनाश की गारण्टी करना है.

हम जानते हैं कि हमें अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की एक नई बानगी के लिए प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु जीवन के पारम्परिक मार्गों और खींचतानों के कारण हम शिथिल हो जाते हैं. यदि भविष्य की रक्षा करनी है तो हमें अपने को गूढ़ विश्वासों की इस निद्रा से धकेलकर निकलना होगा. प्राचीन परम्पराओं तथा नवागत समाज-वैशिष्ट्य में संघर्ष है. समस्त जीवन ही पुरातन और नूतन के बीच सनातन द्वन्द्व है. नायक बनी हुई वस्तुओं का नहीं, वरन बनती हुई वस्तुओं का योद्धा है. जिस राक्षस को मारना है वह तथातथ्य का राक्षस है. शत्रु सत्ता के स्थान पर है; वही जालिम है जो अपनी शक्ति सत्ता का अपने हित में उपयोग करता है.

प्राकृतिक आत्महत्या के अनेक मार्ग हैं किन्तु मानव के जीवित बचे रहने का एक ही रास्ता है. यह है निष्ठा का, श्रद्धा का, धर्म का मार्ग जो हमें आने वाली वस्तुओं के लिए शक्तिमती आशा से प्रेरित करता है. मानवीय विषयों में कोई नितान्त कारणत्व नहीं हुआ करता.
संघर्ष है चेतन अभिप्राय एवं अचेतन मनोवेग के बीच। मनुष्य भलाई-बुराई का, ज्ञान एवं मूढ़ता का मिश्रण है. हमें स्वयं अपने से, दुर्बलता से, अपनी प्रकृति मे निहित भ्रष्ता से अपनी रक्षा करनी है. यह विश्व पतित मानव का घर है, जहाँ विवेक राज्य होना चाहिए किन्तु राज्य है वस्तुतः अविवेक.
[1.308 ई. पू. एथेंस में ज़ीनो द्वारा स्थापित एक सम्प्रदाय के दार्शनिक.]

सर्वेपल्लि राधाकृष्णन्, भारतीय संस्कृति कुछ विचार का अंश साभार

Saturday, June 14, 2008

विकास का सांस्कृतिक आधार









जब हम एशिया में हुए पिछले पचास वर्षों के विकास-प्रयासों पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं कि विकास के तीन मुख्य मॉडल अपनाये गये और तीनों अलग-अलग विचारधाराओं पर आधारित थे. अपनायी गयी विचारधारा ने विकास प्रक्रिया को प्रभावित तथा प्रोत्साहित किया और विकास को नये मोड़ दिये. अनेक देशों ने स्थानीय परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए आधुनिकीकरण के पश्चिमी मॉडल को अपनाया. यह विकास का पूँजीवादी मॉडल था. कुछ ने राष्ट्र-निर्माण का क्रान्तिकारी रास्ता चुना. उनके सामने सोवियत समाजवादी पुनर्रचना का मॉडल था. बाद में चीन के जनवादी गणतन्त्र तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बने समाजवादी देशों से भी उन्होंने प्रेरणा ली. इन समाजवादी प्रयोगों का वैचारिक आधार तो एक ही था, परन्तु कार्यक्रमों का क्रियान्वयन राष्ट्रीय सन्दर्भों तथा बदलती परिस्थितियों के अनुसार किया गया. शेष देशों ने अपने-अपने स्वयं के मॉडल बनाये। कहीं नियन्त्रित लोकतन्त्र की बात कही, कहीं बुनियादी लोकतन्त्र का नाम लिया और इसी तरह के अन्य रूपों को अपनाया गया. अधिकतर इन प्रयासों के माध्यम से तत्कालीन सत्ता के ढाँचे को सही सिद्ध करने की कोशिश की गयी. इन देशों में अपनी स्वतन्त्र राह अपनाने की बात कही गयी थी, परन्तु उनके इस दावे में विश्वसनीयता नहीं थी. मुख्य मॉडल दो ही थे. स्वतन्त्र राह की बात करने वाले कभी पश्चिमी पूँजीवादी व्यवस्था की ओर झुकते थे और कभी समाजवादी व्यवस्था की ओर। इन देशों में से अधिकांश ने पश्चिमी व्यवस्था को अपनाया. लक्ष्य निर्धारण के प्रेरणा-स्त्रोतों को समझने के लिए आवश्यक है कि विकास के इन तीनों रूपों की गम्भीरता से विवेचना की जाए.

पहले पश्चिमी मॉडल पर विचार करें. 1940 के दशक के अन्तिम तथा 1950 के आरम्भ के वर्षों में तीसरी दुनिया में उत्साह का वातावरण था. उपनिवेश तथा आश्रित देश राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर रहे थे और अपने-अपने राष्ट्रीय विकास की महत्वकांक्षी रूपरेखाएँ बना रहे थे. उन्हें आशा थी कि योजनाएँ बनाकर तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहायता एवं तकनीकी पथ-प्रदर्शन का सहारा लेकर वे अपनी बीमार अर्थ-व्यवस्थाओं को बदल डालेंगे और इसी के साथ सम्पन्नता और समृद्धि के युग का प्रारम्भ हो जाएगा. वे मात्र दो दशकों में औद्योगिक विकास के उस स्तर को प्राप्त करने की आशा लगाये थे जिसको प्राप्त करने में पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका को दो सौ साल लगे थे. धनी और औद्योगिक क्षेत्र के अधिक विकसित देशों में विकास विशेषज्ञों की रातों- रात पैदा होने वाली फ़ौज ने विकास के आकर्षक और अपरीक्षित नुस्ख़े प्रस्तुत किये जिनसे इन अप्रत्याशित आशाओं को बढ़ावा मिला.

बीस साल बाद तीसरी दुनिया के सोच का ढंग अधिक यथार्थवादी बना. उन्हें यह अहसास हुआ कि आज़ादी के उल्लास में तीसरी दुनिया के देशों ने अपनी क्षमताओं और सम्भावनाओं का आकलन बहुत बढ़-चढ़कर किया था. तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने अपनी सीमित विशेषज्ञता को अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया था. उनका यह ज्ञान अज्ञानियों को गर्वोक्ति सिद्ध हुआ. उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया प्रगति का प्रतिरूप असफल हुआ और वह चमत्कार नहीं हुआ जिसकी आशा विकासशील विश्व को थी.

विकास की इस प्रारम्भिक अवधारणा की कमियाँ अब स्पष्ट थीं, तीसरी दुनिया की समझ में आ गया था कि विकास की प्रक्रिया में अनेक उलझाव हैं और इसमें एक-दूसरे से जुड़े अनेक ऐसे तत्व हैं जो देश और काल के अनुसार परिवर्तनशील हैं. विकास ऐसी सीधी और सरल प्रक्रिया नहीं है जिसमें हिसाब लगाकर निवेश किया जाए और तदनुरूप उत्पाद पा लिया जाए. प्रौद्योगिकी के स्थानान्तरण में भी अनेक कठिनाइयाँ होती हैं. कभी –कभी यह सुझाव भी दिया गया कि विदेशी संस्थाओं को भी अपनाया जाए, परन्तु संस्थाओं का स्थानान्तरण असम्भव पाया गया. नयी प्रौद्योगिकी को अपनाने में समय लगता है और इसके लिए धीरज और सतत नवाचार की आवश्यकता होती है. उसकी उपयुक्तता का पता प्रयासों की सफलता और असफलता से ही लगता है. विकास के अनुरूप संस्थात्मक तथा प्रेरणात्मक ढाँचा बनाते समय अनेक विरोधाभासों और जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है. असफलता के अनेक बहाने खोजे जाते हैं, परन्तु इनसे एक झूठा सन्तोष ही मिलता है और उनसे निश्चित समय में प्राप्त की जानेवाली प्रगति का कारगर रास्ता नज़र नहीं आता. आवश्यक है कि हम पिछले अनुभव की पृष्ठभूमि में विचार करें कि विकास का पश्चिमी प्रतिरूप असफल क्यों हुआ और इस आधार पर विकल्पों को निर्धारित करने का प्रयत्न करें. इसका अर्थ है कि हमें विकास की अपनी अवधारणा तथा तत्सम्बन्धी कार्यप्रणाली पर गम्भीरता से पुनर्विचार करना चाहिए.

यह आश्चर्य की बात है कि विकास के अभिप्राय की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गयी. विकास के सूचक-विकास दर, सकल राष्ट्रीय उत्पाद और प्रति-व्यक्ति औसत आय-पूरी तरह आर्थिक मापदंड ही माने गये, सामाजिक और सांस्कृतिक सूचकों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. यह मान लिया गया था कि इन आर्थिक सूचकों के आधार पर प्राप्त किये गये राष्ट्रीय लाभ किसी-न-किसी तरह नीचे पूरी जनता तक पहुँच जाएँगे. वास्तव में हुआ यह कि विकास के लाभों का बड़ा भाग समाज के उच्च वर्ग को मिला, जिसके हाथ में उत्पादन के साधन थे. इस तरह एक नया शोषक वर्ग विकसित हुआ. इस आर्थिक क्रिया-कलाप को दिशा देने वाले प्रमुख समूह ने विशेष लाभ प्राप्त कर लिये, समाज का गरीब वर्ग इन लाभों से प्रायः अछूता रहा. आम गरीब जनता को ऐसे विकास का नाम-मात्र का लाभ मिला, और यह लाभ भी राज्य के द्वारा दी जाने वाली सामाजिक सेवाओं के रूप में था. गरीबी और अमीरी के बीच की दूरी बढ़ी. समाज में अल्पसुविधा प्राप्त गरीबों का अनुपात बढ़ा. गरीबी की रेखा से नीचे की जनता से त्याग और सेवा की अपीलें अर्थहीन थीं, वे बलिदान और सेवा करने के लिए अपने जीवन के अविश्वसनीय रूप से नीचे स्तर से और अधिक नीचे जा ही नहीं सकते थे. विकास–योजनाओं में इन वर्गों के प्रति थोड़ा दिखावटी प्रेम प्रदर्शित किया गया, ‘समाजवाद’ और ‘वितरणात्मक न्याय’ के आकर्षक नारे दिये गये। ये दीर्घकालीन उद्देश्य थे, जो कभी सूदुर भविष्य में ही प्राप्त होने थे. इन उद्देश्यों की बात तो कही गयी परन्तु उनको प्राप्त करने का कोई समयबद्ध कार्यक्रम नहीं बनाया गया. जनता की न्यूनतम आवश्यकताओं की ओर समुचित ध्यान भी नहीं दिया गया. तथ्य यह है कि पूरा मॉडल अन्ततः उपभोक्तावादी समाज का था और उपभोक्तावाद ही उसका मुख्य दर्शन था. उच्च वर्ग को दोनों प्रकार के लाभ थे, एक ओर उन्होंने विकसित दुनिया की नयी आवश्यकताओं, उपभोक्तावादी संरचना और यन्त्रवाद को अपनाया, और दूसरी ओर तीसरी दुनिया की सामन्तवादी विलासिता और औपनिवेशिक दृष्टिकोण को क़ायम रखा. अधिकांश जनता को कम मज़दूरी पर काम करना पड़ा या बेरोज़गारी का सामना करना पड़ा. इस प्रकार सामान्यजन के ग़रीबी और दुख भरे जीवन के बीच एक छोटा-सा समूह समृद्धि के असाधारण रूप से ऊँचे स्तर का उपभोग कर रहा था. इस दुखद स्थित का विकल्प खोजने का प्रयास ही नहीं किया गया-एक ऐसा विकल्प जिससे इस दुखावस्था में रहने वाले ग़रीबों को ऐसा जीवन स्तर प्राप्त हो सके जो मानवीय दृष्टि से पर्याप्त और सम्मानजनक हो. अधिकांश सत्ताधारी जनता के सामने क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किये थे, परन्तु अपने व्यक्तिगत जीवन में वे उपभोक्तावादी दर्शन का अनुसरण करते थे. अनियन्त्रित स्वार्थ और असीम लिप्सा के कारण इस विशिष्ट वर्ग के सामान्य जनता का विश्वास खो दिया. आखिरकार वे जनता को क्या दे सकते थे? केवल वायदे, और उन वायदों का पूरा होना निकट भविष्य में सम्भव नहीं दिखायी देता था.

आर्थिक विकास को एक रास्ते पर चलना था और उसे कुछ अवश्यम्भावी अवस्थाओं से गुज़रना था. जो प्रौद्योगिकी अपनायी गयी वह पश्चिम में विकसित हुई थी और इसलिए वह पश्चिमी सामाजिक वातावरण के अनुरूप थी. पश्चिमी प्रौद्योगिकी अधिकांशतः सघन पूँजी निवेश पर आधारित थी, इसलिए वह उन देशों के लिए उयुक्त नहीं थी जहां पूँजी की कमी थी और श्रम बहुतायत से उपलब्ध था. ऐसी प्रौद्योगिकी को अपनाने से रोज़गार के अवसर बहुत कम बढ़े और बढ़ती हुई बेरोज़गारी के संकट को कम करने में अधिक सहायता नहीं मिली. अल्प विकसित देशों में बेरोज़गारी की बढ़ती हुई संख्या एक कष्टदायक तस्वीर प्रस्तुत करती है. इस प्रौद्योगिकी के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता थी, और यह ऊर्जा या तो आन्तरिक स्रोतों से प्राप्त होनी थी-ऐसे आन्तरिक स्रोत जिनका पुनर्भरण नहीं हो सकता था, या फिर बाह्य स्रोतों से; और जिनके पास ये बाह्य स्रोत उपलब्ध थे उन्हें इन पर लगभग एकाधिकार प्राप्त था और इसलिए वे उनकी मनमानी कीमत वसूल कर सकते थे. जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही थी, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी मात्रा में उपयोग हुआ. इससे निकट भविष्य में संसाधन-समाप्ति का संकट उपस्थित हो गया. औद्योगिक उत्पादन का एक बड़ा भाग केवल विशिष्ट वर्ग के उपभोग से जुड़ा था और सामान्य जन की व्यक्तिगत तथा सामुदायिक आवश्यकताओं से इसका बहुत कम सम्बन्ध था.

यह विकास भी निर्भरता के ढाँचे के अन्तर्गत होना था. विदेशी तकनीकी ज्ञान ऊँची कीमत पर खरीदा गया. काफ़ी हानि हो जाने के बाद तीसरी दुनिया को पता चला कि अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता और ऋण सदैव सदाशयता के कारण नहीं दिये गये थे. इन सहायताओं और ऋणों से अनेक प्रत्यक्ष और परोक्ष शर्तें जुड़ी हुई थीं. आज अनेक देशों को लगभग उतना ही धन वापस करना पड़ता है जितना वे ऋण के रूप में लेते हैं. ऋण भुगतान का चक्र एक संवेदनशील विषय है और इससे ग़रीब राष्ट्रों और अमीर राष्ट्रों के सम्बन्ध प्रभावित होते हैं. इसमें ग़रीब देश हानि में रहते हैं. विदेशी सहायता के बारे में सोचा गया था कि यह एक अस्थायी व्यवस्था है, परन्तु अब वह एक स्थायी आवश्यकता बनती जा रही है, और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह सहायता, उन देशों के हाथ में शक्ति का स्रोत बन गयी है जो उसे देते हैं. सहायता देने वाले प्रभावशाली देश सहायता पाने वाले देशों पर खुला राजनीतिक प्रभाव डालते हैं कि वे ऐसी नीतियों को अपनाएँ जिनसे सहायता देनेवाले देशों का हित हो. परोक्ष रूप से उन्होंने अनेक प्रकार के दबाव डाले हैं, जिनमें से कुछ का अर्थ है सहायता प्राप्त करनेवाले देशों की स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता का परिसीमन। सहायता और ऋण समझौतों में निरापद दिखाई देनेवाली शर्तों से भी सहायता देनेवाले देशों के हितों की रक्षा हुई, सहायता प्राप्त करनेवाले देशों को अनेक सेवाएँ तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय दरों की तुलना में अधिक मूल्य पर ख़रीदनी पड़ीं. सहायता देने वाले देशों को यह पसन्द नहीं था कि विकासशील देश अपनी मर्ज़ी की स्वतन्त्र नीति पर चलें. आत्मनिर्भरता के उनके प्रयासों के ग़लत समझा गया. स्वतन्त्र मार्ग पर चलने का प्रयास करनेवाले देशों को सहायता बन्द करने की प्रत्यक्ष और परोक्ष धमकियाँ दी गयीं. विदेशी सहायता विकासशील देशों में नव-उपनिवेशवाद का आधार तैयार करने और उसे क़ायम रखने का साधन बनी. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को आश्रित व्यवस्था की भूमिका निभानी पड़ी.

तीसरी दुनिया जानती है कि समकालीन विश्व अर्थव्यवस्था अन्तर्निहित अन्याय पर आधारित है, इसलिए यह आवश्यक है कि इसका ढाँचा बदले ताकि विकासशील देशों को अपने संसाधनों के उपयोग और मानव जाति की उत्पादन-प्रक्रिया में सार्थक हिस्सेदारी मिल सके. उन्होंने समझ लिया है कि ‘प्रगति की सीमाओं’ का निहित अर्थ विकसित देशों की अपेक्षा अविकसित देशों पर अधिक रोक लगाना है. उनको सलाह दी जाती है कि वे पृथ्वी के प्रदूषण को और न बढ़ाएँ, इस उपदेश का उद्देश्य सराहनीय प्रतीत होता है परन्तु इसका पालन सम्भव नहीं है, इसलिए विकासशील देशों को यह उपदेश सुनकर उलझन होती है. तीसरी दुनिया ने ‘जीवन नौका सिद्धान्त’ के बारे में भी सुना है, जिसका आशय है कि तीसरी दुनिया के उन जीवन-क्षम देशों को ही सहायता दी जाए जिनमें कुछ ऊर्जा शेष है और जो ऐसी सहायता का उपयोग करने में सक्षम हैं. शेष की चिन्ता व्यर्थ है. क्या विकासशील देशों के निवासी हम सर्वनाश की आखिरी मंजिल पर पहुँच गये हैं ?
विकासशील देशों ने अब उन मानवीय क़ीमतों का अनुमान लगाना शुरू किया है, जो नयी टेक्नॉलोजी के मार्ग पर चलने में उन्हें चुकानी पड़ती हैं. पश्चिमी मॉडल पर आधारित विकास की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं और सामाजिक संरचना के परिवर्तनों ने उनकी सांस्कृतिक स्वायत्तता और पहचान के लिए संकट खड़ा कर दिया है. चाहे जो भी कारण हो, विकास के जैसे परिणामों का वायदा था, वे सामने नहीं आये. प्रश्न है, क्या हम इन वायदों के लाभों के लिए अपने सांस्कृतिक व्यक्तित्व को हास्यास्पद हो जाने दें ? इस दौरान उद्योग के क्षेत्र में प्रगत पश्चिम में भी तनाव के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं; तीव्र गति से होने वाले औद्योगीकरण से उत्पन्न सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का मुक़ाबला करने में वह अपने-आपको अक्षम पा रहा है. अब तक ग़रीब देश भयमिश्रित आदर से पश्चिम के विशेषज्ञों की राय और आलोचना को सुनते थे; अब उन्हें मालूम हो गया है कि तथाकथित सर्वज्ञान सम्पन्न विशेषज्ञों ने उनके साथ छल किया है. जिनको उन्होंने देवता समझा था, वे मिट्टी के माधो निकले. जिस विकास और उन्नति के स्तर का वायदा था, वह नहीं मिला. इसलिए स्वाभाविक है कि आज तीसरी दुनिया के देश अपनी आवाज सुनना चाहते हैं और एक वैकल्पिक मार्ग अपनाना चाहते हैं जिससे वे अपने भविष्य का निर्माण कर सकें.

कुछ देशों ने विकास का दूसरा रास्ता चुना, यह क्रान्ति का मार्ग था. मार्क्स और लेनिन के मूल-भूत सिद्धान्तों पर चलते हुए, इन देशों ने सत्ता के वर्ग आधार को ढहा देने का प्रयास किया और सामाजवादी आधार पर अपने समाज की पुनर्रचना करने का प्रयत्न किया. सोवियत संघ में यह किया जा चुका था और वही इसकी प्रेरणा थी. इन देशों को कुछ अंश में राजनीतिक समर्थन, आर्थिक सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन उन देशों से प्राप्त होता रहा जिनसे उनकी वैचारिक समरूपता थी. अधिकांश देशों ने क्रान्ति के मार्ग और क्रान्तिकारी समाज-संरचना की दिशा में विभिन्न विकल्पों का निर्माण किया. ये विकल्प क्रान्तिकारी राष्ट्रनिर्माण की मूल मुख्यधारा से भिन्न थे. क्रान्तिकारी धारा में शामिल होने वाले देशों ने अपने अलग-अलग रास्ते चुने और साथ ही इस धारा के पहले के सफल अनुभवों का लाभ भी लिया. इन देशों में किसी ने भी अपनी परम्परा को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया, परन्तु परम्परा के उन तत्त्वों को अवश्य तोड़ा जो उनकी दृष्टि में प्रगति के मार्ग में रुकावट उत्पन्न करते थे. एशिया में एक बड़े देश-चीन-ने सतत क्रान्ति की राह को चुना, जिसका अर्थ था कि चल रही प्रगति धारा का लगातार आकलन होता रहे और साथ ही गतिरोधकों की पहचान भी होती रहे. यह प्रयास केवल नया समाज ही नहीं, नया मानव बनाने का था.

तीसरा रास्ता है ऐसा संस्थात्मक ढाँचा बनाने का जो देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक यथार्थ के अनुरूप हो. इन देशों ने सोचा कि पूर्ण और खुला लोकतन्त्र उनकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता, इसलिए आवश्यक था कि राजनीतिक संस्थाओं के ढाँचे में परिवर्तन किया जाए. उन्होंने या तो नियन्त्रित लोकतन्त्र के रूप को चुना या सैनिक तानाशाही को अपनाया. इन देशों में नये राजनीतिक समीकरणों को मान्यता दिलाने या सही सिद्ध करने का प्रयास हुआ. उनका औपचारिक रूप कोई भी रहा हो, उनकी नीतियों में एक विचारात्मक झुकाव था. कुछ ने क्रान्तिकारी और मूलभूत सुधारवाद का प्रतिरूप प्रस्तुत किया और समतावादी लक्ष्यों की घोषणा की, परन्तु उनका विकास का अन्तर्निहित दर्शन भी पश्चिमी मॉडल से प्रभावित था. प्रयास किया गया कि जातीय़ तथा क्षेत्रीय राष्ट्रीयताएँ समाप्त हों और समग्र राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न हो. परम्परा, विशेष रूप से धर्म से जुड़ी भावनाओं का उपयोग लोगों को जोड़ने के लिए किया गया. परम्परा के किसी भी रूप-धर्म, सामाजिक संरचना तथा जीवन-मूल्य को तोड़ने का प्रयास नहीं किया गया. यह आशा की गयी कि आर्थिक विकास से लोगों के दृष्टिकोणों और जीवन-मूल्यों में परिवर्तन हो जाएगा. इन देशों में विकास प्रक्रिया पर समाज के विशिष्ट प्रभावशाली वर्ग का वर्चस्व रहा. क्रान्तिकारी घोषणाओं के बावजूद विकास का अधिकांश लाभ समाज के विशिष्ट अल्प वर्ग को मिलता रहा. इसका प्रमाण नहीं मिलता कि उन्होंने अपने अनुकूल प्रौद्योगिकी अपनाने का या उपलब्ध प्रौद्योगिकी को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का प्रयास किया हो. जीवन के स्वरूप तथा सामाजिक सम्बन्धों के गठन, दोनों के बारे में भविष्य की योजना के खाकों के रंग धुँधले रहे.


--------------श्यामाचरण दुबे, परम्परा और परिवर्तन से साभार

Sunday, June 8, 2008

कला, मिथक और यथार्थ


we are our own demons, we expel ourselves from our paradise.

---------------------------- ग्रोयटे


मनुष्य का आत्मबोध-यह कि मैं हूँ और मनुष्य हूँ-इतिहास में कोई बहुत पुरानी घटना नहीं है. हम इस घटना, इस आत्मबोध के इतने आदी हो गए हैं कि लगता है मानो यह मानव स्वभाव का कोई शाश्वत तत्त्व हो उसके मनुष्य तत्त्व से जुड़ा हुआ, मनुष्य की चेतना का अभिन्न भाव चिरन्तन और सार्वभौम-जिसका दिशा काल से कोई सन्बन्ध न हो. हम अक्सर भूल जाते हैं कि मनुष्य की आत्मचेतना-कि मैं धरती पर अकेला अजनबी हूँ और स्वयं अपनी नियति के लिए जवाबदेह हूँ-यहूदी-ईसाई परम्परा का अंग है जिसने पश्चिमी सभ्यता को एक विशिष्ट आध्यात्मिक चरित्र प्रदान किया था. इस परम्परा की अन्तिम परिणति-तार्किक परिणति-रेनेसेंस मनुष्य के उस सर्वांगीण व्यक्तित्व में प्रस्फुटित हुई, जिसे अपने ‘अहं’ पर भरोसा था, जो धरती के केन्द्र में था, (उसी तरह जैसे धरती सौरमंडल के केन्द्र में थी), जिसकी कसौटी पर दुनिया की हर चीज नापी जाती थी-आत्मविश्वासी, आत्मकेन्द्रित, गर्वीला मनुष्य.

मनुष्य को अपने इस गरिमा-मंडित आत्मगौरव के लिए काफी भारी मूल्य चुकाना पड़ा. मध्यकाल में वह अपने विश्वासों के भीतर सुरक्षित था-चर्च की चहारदीवारी के भीतर इन विश्वासों पर शंका या सन्देह की आँच नहीं आ सकती थी. सुरक्षा की यह गरमाई आज भी हम यूरोप की मॉनेस्टरियों में देख सकते हैं, जिनकी तंग सँकरी कोठरियों में भिक्षुक और भिक्षुणियाँ अपना जीवन बिताते थे. एक बन्द समाज में मनुष्य स्वतन्त्र न भी हो, अपेक्षाकृत सुरक्षित रह सकता है, इसकी कल्पना कम-से-कम भारतवासी कर सकते हैं-या कुछ दशक पहले तक कर सकते थे. किन्तु यूरोप में रेनेसेंस के बाद सुरक्षा की ये दीवारें एक-एक करके ढहने लगीं. मनुष्य अब खुले में था. स्वाधीन किन्तु अरक्षित. एक समय में ईसाई विश्वदर्शन ने मनुष्य और दुनिया के बीच जो सेतु बनाया था, वह सहसा डगमगाने लगा था.

लूथर ने जो आघात चर्च की आस्था पर किया था, वह कुछ इतना गहरा था कि उसकी भग्न दरारों के बीच पहली बार आत्मशंका की छाया ने निकलकर यूरोपीय मानस को विचलित और उद्वेलित कर दिया था. अब मनुष्य अपने से भागकर कहीं और सिर नहीं छिपा सकता था. पास्कल शायद पहले ईसाई चिन्तक, थे जिन्होंने यूरोपीय मनुष्य के उस भयावह आतंक को समझा था, जो ब्रह्मांड के सूने मौन से उत्पन्न होता है. पहली बार मनुष्य के भीतर यदि ‘चिन्ता’ (anxiety) की अनुभूति हुई, तो शायद इस बिन्दु पर जब धर्मचेतना के धुँधले हाशिये पर लुप्त होता गया और दूसरी तरफ मनुष्य का अपना ‘मैं’, अपनी गौरवपूर्ण अस्मिता एक ऐसे संकीर्ण, अहंग्रस्तदायरे में सिकुड़ गई, जहाँ वह अपने भीतर के अँधेरे के समक्ष नितान्त अवश पड़ता गया. क्या मतलब है इस अँधेरे का? इस प्रश्न के सामने वह बिल्कुल निरुत्तर था. अब मनुष्य विश्व के केन्द्र में नहीं, अपने शून्य के केन्द्र में था-और वहाँ वह बिल्कुल अकेला था.

इसलिए मनुष्य का आत्मबोध अपने होने की चेतना मानव स्वभाव का कोई शाश्वत गुण नहीं है; वह एक प्रक्रिया है जो इतिहास में घटती है-एक दुर्घटना और वरदान दोनों ही. इस प्रक्रिया में आशा और अपशगुन दोनों ही निहिति हैं-स्वतन्त्रता की आशा और अकेलेपन का अपशगुन। मनुष्य की आत्मचेतना दार्शनिक अर्थ में नहीं, जहाँ वह आत्मज्ञान होती है-बल्कि जैविक विकास के अर्थ में-जहाँ मनुष्य को अपने होने, अपने अस्तित्व का बोध होता है-वह आत्मचेतना व्यक्ति की मानसिकता में एक फाँक खींच देती है-और यह फाँक, यह दरार उतनी ही गहरी और विध्वंसात्मक है, जितना वह प्राथमिक पतन जब मानव जाति पहली बार प्रकृति के अभिन्न सम्बन्ध से टूटी थी, विलगित हुई थी और उसने एक सर्वथा उदासीन, सर्वथा भावशून्य विश्व में अपने को नितान्त सीमित, क्षुद्र और क्षणभंगुर पाया था. आज की सभ्यता का संकट और प्रदूषण उस ऐतिहासिक क्षण से शुरू हो गया था, जब मनुष्य प्रकृति से अलग छिटक गया था यह मानव-सभ्यता और मनुष्य की यातना का समान स्रोत है, जो आज हमें घसीटकर ‘अणु युग’ तक ले आया है.

मनुष्य का यह दुहरा अलगाव-प्रकृति से विलगित होना और समाज से अलग टूट जाना-यद्यपि ऐतिहासिक प्रक्रिया के दो अलग-अलग क्षण हैं, किन्तु मनुष्य की चेतना पर उनका प्रभाव बहुत कुछ एक जैसा है-दोनों स्थितियों में ही मनुष्य के भीतर एक भयावह अकेलापन अनाथ हो जाने की कातरता उत्पन्न हो जाती है, वास्तव में जब हम किसी ‘समग्र इकाई’ से टूटते हैं (चाहे वह बच्चे का माँ के गर्भ से अलग होना ही क्यों न हो) तो यह अनाथ-भाव अनिवार्य रूप से हमें आक्रान्त करता है. किन्तु प्रकृति से अलगाव कहीं बहुत गहरे में समाज के अलगाव से भिन्न है; प्रागैतिहासिक-काल का आदिवासी प्रकृति से अलग टूटकर कम-से-कम अपने समूह से जुड़ा रहता है जिसके परिणामस्वरूप उसके निजी अनुभव एक वृहत्तर अनुभव, एक सामूहिक चेतना का ही अंश हैं, जिसमें वह दूसरों के अनुभवों में साझा करता है और दूसरे उसके अनुभव में भाग लेते हैं. किन्तु इससे भिन्न एक सभ्य मनुष्य की आत्मचेतना केवल अपने तक ही केन्द्रित रहती है-उसका निजी व्यक्तित्व एक सम्पूर्ण इकाई है, जिसके भीतर वह समूची बाहरी दुनिया को समेट लेता है-जिसके कारण वह अपने को दूसरों के साथ नहीं, दूसरों के समक्ष या विरुद्ध पाता है. उसका अनुभव यदि दूसरों के अनुभवों में साझा भी करता है, तो अपनी शर्तों पर, एक विराट अनुभव का अंश बनकर नहीं, और जब वह अपने को किसी वृहत्तर इकाई (राज्य तानाशाह या जाति) के प्रति समर्पित करता हूँ, तो भी यह भावना कि ‘मैं अपने को विलय कर रहा हूँ’, उसकी चेतना पर एक याद, एक खरोंच की तरह दगी रहती है.

ऐतिहासिक सभ्य मनुष्य की यह पीड़ा कि वह दूसरों से भिन्न या उनके विरुद्ध है-उस प्रागैतिहासिक मनुष्य की पीड़ा से भिन्न या उनके विरुद्ध है-उस प्रागैतिहासिक मनुष्य की पीड़ा से एक गहरे अर्थ में अलग हो जाती है, जो अपने को प्रकृति के समक्ष तो अकेला पाता है, किन्तु अपने भीतर अकेला महसूस नहीं करता. वास्तव में मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं, और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं. प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं. सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है. कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों (epik) की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं. मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है.

किन्तु महाकाव्य के बुनियादी ‘पैटर्न’ और रूप-गठन का आधार अब भी बहुत हद तक वही ‘मिथक-दृष्टि’ है, जिसके सहारे आदि मनुष्य यथार्थ का बोध प्राप्त करता था, बाहरी दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ता था. एक-दूसरे से जुड़े तथ्य और घटनाएँ महाकाव्य के लेखक आदि कवि को उतना प्रभावित नहीं करतीं, जितना सामूहिक अवचेतना से जुड़े रूपक (metaphor) उसकी अन्तर्चेतना को अनुप्राणित और आलोकित करते हैं. रूपक से तथ्य और मिथक से तर्क की तरफ बढ़ती हुई मनुष्य की मानसिकता एक तरह से उस ऐतिहासिक विकास (यदि हम उसे ‘विकास’ कह सकें) को ही रेखांकित करती है, जब मनुष्य की सामूहिक अवचेतना धीरे-धीरे व्यक्ति की आत्मचेतना में परिणत होने लगी थी.

महाकाव्य के मिथकीय नायक का अपनी नियति से सम्बन्ध उतना ही समग्र और सहज है, जितना आदिमनुष्य का सम्बन्ध अन्य व्यक्ति से था; वह सामंजस्य और स्वीकृति का रिश्ता है-विरोध और प्रतिरोध का नहीं. इस रिश्ते में एक तरह का अनिवार्यता है, जो उसे निर्मम और कठोर तो बनाती है, लेकिन त्रासद कभी नहीं. ईलियड में आर्खलीस और महाभारत में कर्ण की नियति जीवनधारा का आत्मसमर्पित (आत्मसंकल्पित नहीं) अंग है, जो उसे देवताओं द्वारा रचित वृहत्तर नाटक से जोड़ देती है. मृत्यु का क्षण त्रासद नहीं होता, क्योंकि वह सम्पूर्ण उपलब्धि का क्षण भी है. किन्तु यह बात हैमलेट पर लागू नहीं होती. वह अपने पिता की हत्या के तथ्य के सामने बिल्कुल अकेला है-और यह तथ्य किसी क्रम, किसी पैटर्न, देवताओं के किसी नाटक में फिट नहीं होता-कभी वह हत्या एक घुन की तरह हैमलेट की आत्मा को खाए जाती है. आर्खलीस के जीवन में उसकी मृत्यु एक अनिवार्य परिणति है, जबकि हैमलेट जिन्दगी के साथ झगड़ता हुआ खत्म हो जाता है-बीच बहस में। होमर से शेक्सपियर तक आते-आते मनुष्य की चेतना में आधारभूत परिवर्तन हो चला था-जहाँ पहले वह अपनी प्रकृति नियति से सम्पूर्ण रूप से जुड़ा था, वहाँ कालान्तर में उसकी आत्मा और नियति के बीच एक काली दरार खिंचती गई और यह दरार इतनी गहरी थी कि वह स्वयं अपनी प्रकृति से निर्वासित होता गया. कला में यह परिवर्तन सीधा सृजन-प्रक्रिया में हुआ; पहले कला जहाँ एक अचेतन रचना थी, अब यह रचनात्मक चेतना की अभिव्यक्ति बन गई; किर्केगार्द जिसे ‘सम्पूर्ण सम्भावना’ कहते थे अब वह टूटकर सन्दिग्ध विकल्पों में बँट गई, जिसमें से कोई भी विकल्प मनुष्य चुन सकता था, किन्तु इस चयन का कोई विश्वसनीय दैवी या नैतिक अनुसमर्थन कहीं न था.

यह वह क्षण था, जब मनुष्य का पहली बार अपने ‘मैं’ इगो से साक्षात्कार हुआ, एक ऐसी आत्मभ्रमित चीज जो स्वयं अपने भीतर खंडित थी. पहले जहाँ मनुष्य अपने भीतर समूची वास्तविकता लेकर चलता था, अब वहाँ सिर्फ खोई हुई दुनिया की एक अपाहिज पंगु स्मृति शेष रह गई थी, वह दुनिया खो गई थी, लेकिन मनुष्य उसे भूल नहीं सका था. वास्तव में ‘ईश्वर की मृत्यु’ को लेकर नीत्शे के भयानक आर्तनाद की पीछे यह कातर आकांक्षा छिपी थी कि उस शब्द को दुबारा खोजा जा सके, जो मनुष्य और मिथक को जोड़ता था. एक ऐसे जीवन्त अनुभव का प्रतीक जिसे मनुष्य के अहम बोध ने इतनी बुरी तरह आहत कर दिया था. यह मनुष्य का पतन था. सच कहें, तो दूसरा पतन क्योंकि पहला पतन वह था, जब वह प्रकृति से खंडित हुआ था. मिथक, जो एक समय में मनुष्य के सर्वांगीण, सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषक था, अब आत्मपीड़ित स्मृतियों के जाले में बदल गया, मनुष्य के खंडित, ज्वरग्रस्त स्वप्नों में उलझा हुआ, जिसे सिर्फ फ्रायड की सूक्तियों और सिद्धान्तों में ही पकड़ा जा सकता था.

-------------------निर्मल वर्मा, कला का जोखिम से साभार

परम्परा का मूल्याँकन









जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रान्तिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है. जो लोग समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की रचना करना चाहते हैं, वे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासित भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इतिहास के ज्ञान के बिना ऐतिहासिक भौतिकता का ज्ञान सम्भव है? कम से कम ऐतिहासिक भौतिकता के संस्थापकों की पुस्तकें पढ़ने से ऐसा नहीं लगता. जो महत्त्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है. इतिहास के ज्ञान से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास होता है, साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद के ज्ञान से समाज में व्यापक परिवर्तन किये जा सकते हैं और नयी समाज-व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है. प्रगतिशील आलोचना के ज्ञान से साहित्य की धारा मोड़ी जा सकती है और नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद कुछ अमूर्त सिद्धान्तों का संग्रह नहीं है, वह मानव समाज के इतिहास का मूर्त ज्ञान है. वैसे ही प्रगतिशील आलोचना किन्हीं अमूर्त सिद्धान्तों का संकलन नहीं है, वह साहित्य की परम्परा का मूर्त ज्ञान है. और यह ज्ञान उतना ही विकासमान है जितना साहित्य की परम्परा.

ऐतिहासित भौतिकवाद के संस्थापकों के अनुसार जब से सभ्यता का विकास हुआ, व्यक्तिगत सम्पत्ति और वर्गों का अभ्युदय हुआ, तब सारी संस्कृति, समस्त साहित्य का विकास ऐसी समाज-व्यवस्था में हुआ है, जिसमें सम्पत्ति अधिकांश जनता के शोषण का साधन रही है. सामन्ती सम्पत्ति और पूँजीवादी व्यव्स्था में पूँजीवादी सम्पत्ति अपने साथ के तमाम आर्थिक सम्बन्धों सहित शोषण-व्यवस्था कायम किये रही है. सभ्य समाज में सदैव सम्पत्ति- शाली वर्गों का प्रभुत्व रहा है. अब जिस नये समाज की रचना करनी है, उसमें इस प्रभुत्व को समाप्त कर दिया जायेगा; जिस नयी सभ्यता की रचना करनी है, वह पुरानी सभ्यता से गुणात्म रूप से भिन्न होगी. तब पुराने इतिहास की ज़रूरत क्या है? नयी सभ्यता को पुरानी सभ्यता की ज़रूरत क्या है?

नयी सभ्यता पुरानी सभ्यता से गुणात्मक रूप से भिन्न होगी, ऐतिहासिक प्रक्रिया का यह एक पक्ष है. दूसरा पक्ष यह है कि वह पुरानी सभ्यता की समस्त उपलब्धियों को आत्मसात् करके आगे बढ़ेगी और इतने बड़े पैमाने पर, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, उन्हें अपनायेगी कि वैसा कार्य मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा.

मनुष्य जाति का इतिहास- आदिम गण समाजों के विघटन के बाद-वर्ग-संघर्ष का इतिहास है. जब-जब शोषित वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए, अपनी स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष किया, तब-तब उनका यह संघर्ष उनके उत्तराधिकारी नये समाज के विधायकों के लिए महत्त्वपूर्ण रहा है. इसके साथ उन्होंने अपने वर्ग हितों के अनुकूल अपनी संस्कृति, अपने साहित्य की रचना की है. पर इसके अलावा सभ्यता का इतिहास वर्ग-सहयोग का इतिहास भी है. भले ही यह सहयोग शोषक वर्ग के लोगों को फुसलाकर, डरा-धमकाकर या दबाकर प्राप्त किया हो, बलप्रयोग द्वारा उन्हें अपनी आज्ञा मानने पर बाध्य किया हो, पर है वह वर्ग-सहयोग. प्रश्न इच्छा-अनिच्छा का नहीं है, प्रश्न ऐतिहासिक प्रक्रिया के वस्तुगत रूप का है. सैकड़ों पीढ़ियों तक श्रमिक जनता ने जिस सभ्यता का निर्माण किया है, जो उसके श्रम के बिना अस्तित्व ही में न आती, क्या उनके प्रति उनका नकारात्मक रुख अपनाना सही है? अनेक देशों में ऐसा हुआ है कि सामन्ती व्यवस्था खत्म करने के बाद जनता ने राजप्रासादों का उपयोग अपने हित में किया. उसने उसकी पहले से और भी अधिक रक्षा की और पहले की अपेक्षा उनका और भी अच्छा उपयोग किया. तब पुरानी संस्कृति के कौन से तत्त्व श्रमिक जनता के काम आ सकते हैं, कौन से तत्त्व उसके लिए हानिकारक हैं, इसका निर्धारण आवश्यक होता है.

ऐतिहासिक विकासक्रम में किसी भी समाज व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पत्तिशाली वर्ग की भूमिका उस व्यवस्था के अभ्युदय काल में यह सम्पत्तिशाली वर्ग पुरानी व्यवस्था को बदलता है और सभ्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है. अपने ह्रास काल में वह अपना प्रभुत्व कायम रखना चाहता है, सामाजिक परिवर्तन के आड़े आता है, सभ्यता के विकास में बाधक बनता है दोनों स्थितियों में वह जिस तरह की संस्कृति को प्रश्रय देता है, उसमें बहुत बड़ा अन्तर है.

इसलिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित कराता है. इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है, और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वह वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है. इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में रचा है और उनके वर्ग हितों को प्रतिबिम्बित करता है, उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का. यह स्मरण रखना चाहिए कि पुराने समाज में वर्गों की रूप-रेखा कभी बहुत स्पष्ट नहीं रही. जहाँ पूँजीवाद का यथेष्ट विकास हो गया है, वहीं यह सम्भावना होती है कि सम्पत्तिशाली और सम्पत्ति हीन वर्ग एक-दूसरे के सामने पूरी तरह विरोधी बनकर खड़े हों. पुराने साहित्य में वर्ग-हित साफ़-साफ़- टकराते हुए दिखाई दें, इसकी सम्भावना कम होती है. सभ्यता के अनेक तत्त्वों की तरह साहित्य में ऐसे तत्त्व होते हैं जो विरोधी वर्गों के काम में आते हैं. आग की तरह जलाकर खाना पकाना मानव सभ्यता का सामान्य तत्त्व बन गया है. कल-कारखानों में भाप और बिजली से चलने वाली मशीनों का उपयोग समाजवादी व्यवस्था में होती है और पूँजीवादी व्यवस्था में भी. सभ्यता का हर स्तर वर्गबद्ध नहीं होता. इसी तरह साहित्य का हर स्तर सम्पक्तिशाली वर्गों के हितों से बँधा हुआ नहीं रहता. साहित्य की इस व्यापकता को स्वीकार न करना वैसे ही है जैसे समाजवादी व्यवस्था में बिजली का उपयोग न करना क्योंकि इसका आविष्कार पूँजीवादी समाज में हुआ था. और उसका उपयोग भी पूँजीपतियों ने अपने हित में किया था.

साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बद्ध है. आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है. साहित्य में उसकी बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं. इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है. उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ आन्तरिक प्रेरणाएँ भी व्यंजित होती हैं. साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है.

जिस समय ऐतिहासिक भौतिकता की स्थापना हुई, उस समय जीव-विज्ञान में विकासवाद का बोलबाला था. यह विकासवाद सही हो चाहे गलत, यह बात सच है कि साहित्य में विकास-प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में. सामाजिक विकास-क्रम में सामन्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है और पूँजीवादी सभ्यता के मुकाबले समाजवादी सभ्यता को. पुराने चरखे और करघे के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बहुत बढ़ गयी है. पर यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो। यह भी सम्भव है कि आधुनिक सभ्यता विकास कविता का विरोधी हो और कवि स्वयं बिकाऊ माल बन रहा हो. व्यवहार में यही देखा जाता है कि 19वीं और 20वीं सदी के कवि-क्या भारत में और क्या यूरुप में –पुराने कवियों को घोटे जा रहे हैं और कहीं उनके आस-पास पहुँच जाते हैं तो अपने को धन्य मानते हैं. ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे उनका अनुकरण नहीं करते उससे सीखते हैं, और स्वयं नयी परम्पराओं को जन्म देते हैं. और जो साहित्य दूसरों की नकल करके लिखा जाए, वह अधम कोटि का होता है और सांस्कृति असमर्थता का सूचक होता है. जो महान साहित्यकार हैं, उनकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती, यहाँ तक कि एक भाषा से दूसरी भाषा को अनुवाद करने पर उनका कलात्मक सौन्दर्य ज्यों-का-त्यों नहीं रहता. औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक उत्पादन में यह बहुत बड़ा अन्तर है. अमरीका ने ऐटमबम बनाया, रूस ने भी बनाया, पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज़ का उत्पादन दुबारा इग्लैंड में भी नहीं हुआ.

भौतिकवाद दो तरह का है, एक यान्त्रिक भौतिकवाद, दूसरा द्धन्द्धात्मक भौतिकवाद. यान्त्रिक भौतिकवाद की विशेषता यह है कि वह चेतना को आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब मात्र मानता है. प्रतिबिम्ब यान्त्रिक होता ही है. जब चेतना प्रतिबिम्ब है, तब संस्कृति का ताना-बाना भी पूरी तरह बदल जाता है. इस यान्त्रिक भौतिकवाद का विकास फ्रान्स में हुआ; 19वीं सदी में जब भौतिक विज्ञान का विकास हुआ, तो इस विज्ञान का दार्शनिक दृष्टिकोण इसी यान्त्रिक भौतिकवाद से प्रभावित हुआ. इसके विपरीत द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है. आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है. भौतिकता का अर्थ भाग्य-बाद नहीं है. सब कुछ परिस्थितियों द्वारा अनिवार्यतः निर्धारित नहीं हो जाता. यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं हैं. दोनों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है. यही कारण है कि साहित्य सापेक्षरूप में स्वाधीन होता है.

गुलामी अमरीका में थी और गुलामी एथेन्स में भी, किन्तु एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरुप को प्रभावित किया और गुलामों के अमरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ भी नहीं दिया. सामन्तवाद दुनिया भर में कायम रहा. पर इस सामन्ती दुनिया में महान् कविता के दो ही केन्द्र थे- भारत और ईरान। पूँजीवादी विकास यूरुप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लेओनार्दों दा विंची और माइकेल ऐंजेलो इटली की देन हैं. यहाँ हम एक ओर यह देखते हैं कि विशेष सामाजिक परिस्थितियों में कला का विकास सम्भव होता है, दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि समान सामाजिक परिस्थितियाँ होने पर भी कला का समान विकास नहीं होता. यहाँ हम असाधारण प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय भूमिका भी देखते हैं. जिस तरह औद्योगिक उत्पादन का समाजीकरण पूँजीवादी व्यवस्था में होता हैं, उस तरह साहित्यिक रचना का समाजीकरण नहीं होता. कारखाने में 1500 मज़दूर मिलकर दिन-प्रतिदिन थान के थान कपड़े निकाल सकते है. यदि साहित्यकारों को साहित्य-रचना के कारखाने में भर्ती कर दिया जाए तो हो सकता है कि उनके कुछ दोष दूर हो जायें, अथवा वे एक दूसरे से इतना लड़ें कि और किसी काम के लिए उन्हें फुरसत न मिले, पर नियमित रूप से उच्च कोटि के उपन्यास, काव्य, नाटक के लिए उन्हें फुरसत न मिले, पर नियमित रूप से उच्च कोटि के उपन्यास, काव्य, नाटक, पंचवर्षीय योजना के अनुसार, उस कारखाने से निकलते रहेंगे, इसकी सम्भावना ज़रा कम है. साहित्यकार आपसी सहयोग से लाभ उठाते हैं पर अभी उस तकनीक का पता नहीं लगाया जा सका, जिसे लोगों को सिखाकर साहित्य का सामूहिक उत्पादन किया जा सके.

साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है. इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो कुछ करते हैं. वह सब अच्छा ही अच्छा होता है, या उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते है. कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है. ऐसी कला निर्जीव होती है. इसलिए प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है. आजकल व्यक्ति पूजा की काफी निन्दा की जाती है. किन्तु जो लोग सबसे ज्यादा व्यक्ति-पूजा की निन्दा करते हैं, वे सबसे ज़्यादा व्यक्ति-पूजा का प्रचार भी करते हैं. अन्तर इतना होता है कि ब्रह्मा की जगह उन्होंने विष्णु को बिठा दिया. लेकिन पूजा तो पूजा. ईश्वर अल्ला तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान. यदि कोई भी साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है, तो राजनीतिज्ञ यह दावा और भी नहीं कर सकते, इसलिए कि साहित्य के मूल्य, राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा, अधिक स्थायी हैं. अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल कर एक बड़ी अच्छी कविता लिखी थी. इसमें उन्होंने कहा है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया. पर वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनायी देती हैं और हृदय को आनन्द-विह्यल कर देती हैं कि जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नाम लेवा और पानीदेवा नहीं रह जायेगा, तब शेक्सपियर, मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नज़र आयेंगे जैसे पहले, और उनका प्रकाश पहले की उपेक्षा करोड़ों नयी आँखें देखेंगी.

साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यों की तरह, जनसमुदायों और जातियों की विशेष भूमिका होती है. इसे कौन नहीं जानता कि पुरुष के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों की है, वह अन्य किसी जाति की नहीं है. जनसमुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी अस्मिता नष्ट नहीं हो जाती. प्राचीन यूनान अनेक गणसमाजों में बँटा हुआ था. आधुनिक यूनान एक राष्ट्र है. यह आधुनिक यूनान अपनी प्राचीन संस्कृति से अपनी एकात्मकता स्वीकार करता है या नहीं? 19वीं सदी में शेली और बायरन अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले यूनानियों को ऐसी एकात्मकता पहचानने में बड़ा परिश्रम किया. भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इस देश ने इसी तरह अपनी एकात्मकता पहचानी. इतिहास का प्रवाह ही ऐसा है कि वह विच्छिन्न है और अविच्छिन्न भी. मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है. जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है.

बंगाल विभाजित हुआ और है, किन्तु जब तक पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को अपनी साहित्यिक परम्परा का ज्ञान रहेगा, तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी. विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जायेगा कि साहित्य की परम्परा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है, और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं. एक भाषा बोलने वाली जाति की तरह अनेक भाषाएँ बोलनेवाले राष्ट्र की भी अस्मित होती है. संसार में इस समय अनेक राष्ट्र बहुजातीय हैं, अनेक भाषा-भाषी हैं. जिस समय राष्ट्र के सभी तत्त्वों पर मुसीबत आती है, तब उन्हें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान होता बहुत अच्छी तरह हो जाता है. जिस समय हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया, उस समय यह राष्ट्रीय अस्मिता जनता के स्वाधीनता संग्राम की समर्थ प्रेरक शक्ति बनी. सोवियत संघ के लोग हिटलर-विरोधी संग्राम को उचित ही महान् राष्ट्रीय (अथवा देशभक्तिपूर्ण) संग्राम कहते हैं. इस युद्ध के दौरान खासतौर से रूसी जाति ने बार-बार अपनी साहित्य-परम्परा का स्मरण किया. सोवियत समाज ज़ारशाही रुस के समाज से भिन्न है. समाज-व्यवस्था के विचार से इतिहास का प्रवाह विच्छिन्न है, जातीय अस्मिता की दृष्टि से यह प्रवाह अविच्छन्न है. ज़ारशाही रूस जाति की अस्मिता को सुदृढ़ और पुष्ट करने वाले महान् साहित्यकार हैं. समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जातीय अस्मिता खण्डित नहीं होती वरन् और पुष्ट होती है. इसके साथ सोवियत संघ में बहुजातीय राष्ट्रीयता का पुनर्जन्म हुआ है और यह राष्ट्रीयता अब एक सामाजिक शक्ति है जैसी वह 1917 से पहले नहीं थी. ज़ारशाही रूस में बहुत-सी जातियाँ पराधीन बनाकर रखी गयी थीं. उन सब पर रूसी जाति के सामन्त और पूँजीपति शासन करते थे. जैसे और बहुत-से साम्राज्य होते हैं, वैसे ही यह भी साम्राज्य था. 1917 की क्रान्ति के बाद रूसी और गैररूसी जातियों के आपसी सम्बन्धों में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ. बहुत-सी जातियाँ सोवियत संघ में शामिल न हुईं, अलग हो गयीं. कुछ विलम्ब से, दूसरे महायुद्द से कुछ ही पहले, अन्य जातियाँ उसमें सामिल हुईं. सोवियत संघ में आज जितनी जातियाँ शामिल हैं, उनका वैसा मिला-जुला राष्ट्रीय इतिहास नहीं है, जैसा भारत की जातियों का है. राष्ट्र के गठन में इतिहास का अविच्छिन्न प्रवाह बहुत बड़ी निर्धारक शक्ति है. यूरुप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात करते हैं. पर यूरुप कभी राष्ट्र नहीं बना. और अब तो पूर्वी यूरुप और पश्चिमी यूरुप, दो यूरुप का अलग उल्लेख आम बात है. संसार का कोई भी देश, बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से, इतिहास को ध्यान में रखें तो, भारत का मुकाबला नहीं कर सकता.

यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई. वह मुख्यतः संस्कृति के निर्माण में इस देश के कवियों का सर्वोच्च स्थान है. इस देश की संस्कृति में रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जायेगी. किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में व्यास और वाल्मीकी की है. इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्याँकन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना इस देश के लिए है.

______________ रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन से साभार

Saturday, June 7, 2008

भारतीय समाज का निर्माण


भारतीय समाज बहुत पुराना और अत्यधिक जटिल है. प्रचलित अनुमान के अनुसार पांच हजार वर्ष पूर्व की पहली ज्ञात सभ्यता के समय से आज तक लगभग पांच हजार वर्षों की अवधि इस समाज में समाहित है. इस लंबी अवधि में विभिन्न प्रजातिय लक्षणों वाले और विविध भाषा-परिवारों के आप्रवासियों की कई लहरें यहां आकर इसकी आबादी में घुल मिल गयीं और इसे समाज की विविधता, समृद्धि और जीवंतता में अपना-अपना योगदान दिया.

समकालीन भारत में सामाजिक क्रमविकास के कई अलग-अलग स्तर साथ-साथ मौजूद हैं जैसे आदिकालीन शिकारी और भोजन संग्राहक, झूम खेती करने वाले किसान जो हल-बैल से जुताई करने के बजाय आज भी कुदाली या आद्य हल का इस्तेमाल करते हैं, विभिन्न प्रकार के घुमंतू (बकरी-भेड़ और मवेशी पालक एक जगह से दूसरी जगह घूम-घूमकर व्यापार करने वाले और कारीगर तथा शिल्पी), एक ही जगह बसे किसान जो खेती के लिए हल का इस्तेमाल करते हैं, दस्तकार और प्राचीन वंश परंपरा वाले हल का इस्तेमाल करते हैं, दस्तकार और प्राचीन वंश परंपरा वाले भूस्वामी तथा अभिजात वर्ग. दुनिया के अधिकतर प्रमुख धर्म-हिंदू, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध-यहां हैं और इनके साथ आस्था और कर्मकांड की दृष्टि से इतने अलग-अलग ढंग के संप्रदाय और पंथ भी यहां हैं जो विस्मय में डाल देते हैं. इन सबके साथ आधुनिक अकादमी अफसरशाही, औद्योगिक और वैग्यानिक अभिजन को भी जोड़ देने से हम देखते हैं कि यहां अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों साथ-साथ रह रहे हैं. अपने क्रमविकास की प्रक्रिया में भारतीय समाज ने एक मिली-जुली संस्कृति विकसित की है जिसकी जानकारी विशेषता है बहुलवाद के कुछ स्थायी संरूप (पैटर्न).

भारत के प्राचीनतम निवासियों की पहचान कर पाना कठिन है. आश्चर्य नहीं कि उनके बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, क्योंकि उस समय लिपि का आविष्कार ही नहीं हुआ था. लोगों की मौखिक परंपरा से कोई खास मदद नहीं मिलती क्योंकि बाद में उसमें होने वाले जोड़-घटाव इस मौखिक परंपरा को इतिहास के मार्गदर्शन के रूप में भरोसेमंद नहीं रहने देते. प्रागैतिहासिक साक्ष्य अधिक भरोसेमंद हैं हालांकि इनसे पूरी कहानी नहीं जानी जा सकती. जीवन के तमाम छोटे-छोटे सूक्ष्म विवरण समय के थपेड़ों में खो जाते हैं. अब हम जानते हैं कि भारत में प्रारंभिक मानव-गतिविधियां दूसरे अंतर-हिमानी युग में 400, 000 और 200,000 ई. पू. के बीच शुरू हो चुकी थी, उस समय पत्थरों से बने उपकरण इस्तेमाल किये जाते थे.

देश के विभिन्न भागों में मिले गुफा चित्रों में उस प्रारंभिक काल के जीवन और पर्यावरण, कलात्मक अनुभूतियों और रचनात्मकता तथा संभवतः उस आदिकाल के आध्यात्मक विचारों को भी अभिव्यक्ति मिली हैं विशेषकर प्रायद्वीप भारत में मिलने वाले-महापाषाण (मेगालिथ्स) विशाल पत्थर जो अधिकतर मृतकों के स्मारक के रूप में इस्तेमाल किये गये थे-लोहे कांसे यहां तक कि सोने के भी प्रयोगों को दर्शाते हैं. नया पुरातत्व शास्त्र इन सब बातों पर तो अतिरिक्त जानकारी देने का काम शुरू कर रहा है कि लोग कैसे रहते थे, कौन-कौन सी फसले उगाते थे और क्या खाते-पीते थे, लेकिन वह यह नहीं बताता कि यहां सबसे पहले कौन आया और अन्य लोगों ने किस प्रकार क्रम में इस भूमि पर प्रवेश किया.

भारत की जनसंख्या के नृजातीत (एथनिक) तत्त्वों अर्थात प्रजातीय समूहों के संबंध में भौतिक मानवशास्त्र द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर हम अनुमान लगा सकते है कि भारत के स्वस्थानिक आदिवासी-मूल या प्राचीनतम निवासी-कौन थे. इस विषय में बी. एस. गुहा द्वारा किया गया है वर्गीकरण सर्वाधिक आधिकारिक और सबसे व्यापक रूप में मान्यता प्राप्त है. बी.ए. गुहा ने भारत की जनसंख्या में छह मुख्य प्रजातीय तत्त्वों की पहचान की हैः नेग्रीटो, प्रोटो-आस्ट्रलायड, मंगोलायड, भूमध्यसागर (मेडीटरेनियन), पश्चिमी लघुशिरस्क (वेसेटर्न ब्रैसिसिफल) तथा नोर्डिक। इसमें से प्रथम तीन इस उपमहाद्वीप के पुराने निवासी हैं. वे छोटे-छोटे क्षेत्रों के भीतर ही सीमित हैं. दक्षिण में काडर, इरुला तथा पानियान और अंडमान द्वीपसमूह में ओंग और अंडमानियों में निश्चित नेग्रीटो विशेषताएं स्पष्ट हैं. इस समूह की कुछ विशेषताएं अंगीमी नागाओं तथा राजमहलों पहाड़ियों के बागड़ियों में पायी जाती हैं. पश्चिमी पट पर कुछ समूह ऐसे हैं जिनमें नेग्रीटो लक्षण बहुत स्पष्ट हैं लेकिन वे संभवतः बाद में यहाँ आने वाले उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं.

--------------- श्यामाचरण दूबे, भारतीय समाज से साभार

मानव मूल्य


जब हम मानव मूल्य की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य क्या है, यह समझ लेना आवश्यक है. अपनी परिस्थितियाँ, इतिहास-क्रम और काल-प्रवाह के सन्दर्भ में मनुष्य की स्थिति क्या है और महत्त्व क्या है-वास्तविक समस्या इस बिन्दु से उठती है. समस्त मध्यकाल में इस निखिल सृष्टि और इतिहास-क्रम का नियन्ता किसी मानवोपरि अलौकिक सत्ता को माना जाता था. समस्त मूल्यों का स्रोत्र वही था और मनुष्य की एक मात्र सार्थकता यही थी कि वह अधिक से अधिक उस सत्ता से तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा करे. इतिहास या काल-प्रवाह उसी मानवोपरि सत्ता की सृष्टि था-माया रूप में या लीला रूप में.

ज्यों-ज्यों हम आधुनिक युग में प्रवेश करते गये त्यों-त्यों इस मानवोपरि सत्ता का अवमूल्यन होता गया. मनुष्य की गरिमा का नये स्तर पर उदय हुआ और माना जाने लगा कि मनुष्य अपने में स्वत: सार्थक और मूल्यवान् है-वह आन्तरिक शक्तियों से संपन्न, चेतन-स्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वत: निर्णय लेने वाला प्राणी है. सृष्टि के केन्द्र में मनुष्य है. यह भावना बीच-बीच में मध्यकाल के साधकों या सन्तों में भी कभी-कभी उदित हुई थी, किन्तु आधुनिक युग के पहले यह कभी सर्वमान्य नहीं हो पायी थी.

लेकिन जहाँ तक एक ओर सिद्धांतों के स्तर पर मनुष्य की सार्वभौमिक सर्वोपरि सत्ता स्थापित हुई, वहीं भौतिक स्तर पर ऐसी परिस्थितियाँ और व्यवस्थाएँ विकसित होती गयीं तथा उन्होंने ऐसी चिन्तन धाराओं को प्रेरित किया जो प्रकारान्तर से मनुष्य की सार्थकता और मूल्यवत्ता में अविश्वास करती गयीं. बहुधा ऐसी विचारधाराएँ नाम के लिए मानवतावाद के साथ विशिष्ट विशेषण जोड़कर उसका प्रश्रय लेती रही हैं. किन्तु: मूलत: वे मानव की गरिमा को कुण्ठित करने में सहायक हुई हैं और मानव का अवमूल्यन करती गयी हैं.

सांस्कृतिक संकट या मानवीय तत्त्व के विघटन की जो बात बहुधा उठाई जाती रही है, उसका तात्पर्य यही है कि वर्तमान युग में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं जिसमें अपनी नियति के, इतिहास-निर्माण के सूत्र मनुष्य के हाथों से छूटे हुए लगते हैं-मनुष्य दिनोंदिन निरर्थकता की ओर अग्रसर होता प्रतीत होता है. यह संकट केवल आर्थिक या राजनीतिक संकट नहीं है वरन् जीवन के सभी पक्षों में समान रूप से प्रतिफलित हो रहा है. यह संकट केवल पश्चिम या पूर्व का नहीं है वरन् समस्त संसार में विभिन्न धरातलों पर विभिन्न रुपों में प्रकट हो रहा है.

_____________________ धर्मवीर भारती, मानव मूल्य और साहित्य से साभार

Thursday, June 5, 2008

बर्बर युग



बर्बर युग आज से हजारों साल पहले का वह युग है, जब आदमी अपनी आदिम हालत में था और उसे सभ्यता की किरण भी नहीं मिली थी. तब वह पेड़ों पर, गुफाओं में, गड्ढ़ों में रहता था. नंगा ही घूमता था या अधिक-से-अधिक पत्तों, पेड़ों की छाल या मारे हुए जानवरों की खाल से अपना तन ढकता था. न तो उसके पास रहने को गाँव थे, न मकान, न खाने को उगाया हुआ अन्न था, न पहनने को वस्त्र। जीने के साधन उसके पास सीमित थे. उन साधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण शिकार था. शिकार करके ही वह अपना पेट पालता था.
पर यह शिकार बहुत आसान नहीं था. छोटे-बड़े खूँखार जानवरों का शिकार और वह भी मामूली हथियारों से। तब हाथी से कई गुना बड़े जानवर थे, जो आज खत्म हो गए हैं. ऐसे ही तलवार के से दाढ़ों वाले शेर थे, जिनकी शक्ल आज बिलकुल बदल गई है. तब धातु का ज्ञान नहीं हुआ था. अतः हथियार पत्थर के ही थे, तेज पत्थर के, जिन्हें रगड़कर और फिर लड़की में ठोंककर भाले का फल बना लिया जाता था.
शिकार करना इतना कठिन था कि आदमी अपनी सफलता के लिए अपनी ताकत के ऊपर ही निर्भर नहीं करता था. वह उसके लिए कई प्रकार के जादू-टोने भी करता था. इस प्रकार का एक टोटका था अपनी पहाड़ी की खोह की दीवार पर शिकार किए जाने वाले जानवरों का रेखाचित्र बनाकर, उसे तीरों और भालों से बेध देना. यह शिकारियों को शिकार के शरीर को, उसके अंग-प्रत्यंग को पूरी तरह समझने का मौका देता ही था, साथ ही शिकारियों के विश्वास के अनुसार उन्हें मारने का टोटका भी तैयार कर देता था. अपने भालों से मारने के पहले शिकारी शिकार को चित्र में मार डालते थे. इन रेखाचित्रों को जब-तब फुरसत में वे रंगों से भी सँवारते थे.
इस प्रकार के अनेक चित्र आज से पच्चीस-पच्चीस हजार साल पुराने, उनसे भी पुराने और नए, स्पेन, फ्रांस और अपने देश की खोहों-कन्दराओं में बने मिले हैं. स्पेन देश की अल्टामाइरा और दक्खिनी फ्रांस में सांड़-भैंसों के शिकार के अनुपम चित्र मिलते हैं. ऐसे ही अपने देश में भी मध्य प्रदेश की कुछ कन्दराओं में और मिर्जापुर की गुफाओं में उस प्रचीन काल के जंगली शिकारियों के चित्र हैं, जो हमारे देश की चित्रकला के सबसे पुराने नमूने हैं.
इसके बाद चित्रकारी के नमूने हमें अपने देश में आज से करीब पाँच हजार साल पहले के मिलते हैं. ये सिन्धु घाटी सी सभ्यता के हैं, जो मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और नाल में मिले हैं। ये तीनों इस समय पाकिस्तान में हैं. मोहनजोदड़ो सिन्ध में, हड़प्पा मिंटगुमरी जिले में तथा नाल बलूचिस्तान में है. इसके नमूने कागज पर नहीं है; क्योंकि आदमी ने अभी कागज का इस्तेमाल नहीं सीखा था. फिर भी खूबसूरती का प्रेमी होने के कारण वह अपने बर्तनों, मटकों को चटक रंगों से रँगता और उन पर कई रंगों से साँपों, चटाई और बुनाई और दूसरे प्रकार की शक्लें या जानवरों की तश्वीरें बनाता था. तब के अनेक नमूने हमारे और पाकिस्तान के अजायबघरों में रखे हुए हैं.
बाद के चित्र पत्थर, लकड़ी, हड्डी, हाथी दाँत, चमड़ा, कपड़ा ,भोजपत्र, ताड़पत्र, कागज आदि पर बने। अगले युगों के चित्रों के वर्णन इन्हीं पर बनी तस्वीरों से सम्बन्ध रखते हैं.

--------------------------------- भगवतशरण उपाध्याय