Friday, March 13, 2009
परिवार की बदलती संरचना
आज के समय में परिवार की संकल्पना मानसिक धरातल पर संभवत: यथावत् हो परन्तु उसकी संरचना विकृत एवं विघटित होती जा रही है। संबंधों में क्लेश बढ़ रहा है तो आचरणों में अह्म भाव। "मेरी मर्जी" से बनी मूल्य व्यवस्था मानवीय व्यवहार का हनन कर रही है। जीवन की गतिविधियाँ कर्तव्यों से नहीं अधिकारों से निर्धारित होने लगी है। तलाक, आत्महत्या एवं अपराध में वृद्धि अनायास ही नहीं हो रही है। पारिवारिक संबंधों में अपराध के स्वरूप भी बदलते एवं बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक अपराध व बुजुर्गों के मानसिक उत्पीड़न के अतिरिक्त यौनशोषण भी बढ़ता जा रहा है। बाज़ार के संस्कृति उद्योग ने इसे अधिक उग्र बना दिया है। इन विषयों पर साहित्यिक रचनाएँ बहुत हुईं, फिल्म व धारावाहिक भी बहुत बने, परन्तु समाज पर प्रभाव लगभग शून्य ही रहा। अपितु वृद्धि ही होती जा रही है। अतएव अन्य विभिन्न कारणों के अतिरिक्त बाज़ारतंत्र के सापेक्ष परिवार की बदलती संरचना पर पुनर्विचार की जरूरत है।
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