Friday, July 18, 2008

भारतीय संस्कृति और युवा वर्ग


संस्कृति अपनी भाषा में निबद्ध होती है. भाषिक परिवर्तन संस्कृति के स्वरूप को भी परिवर्तित करता है, और भाषा की मृत्यु संस्कृति को भी मारती है. भारतीय संस्कृति भारत की बहुभाषायी अस्मिता पर आधारित बहुआयामी संस्कृति की एकता की परिचायक है. ऐसे में भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व भारतीय संस्कृति में भी पश्चिम के वर्चस्व को स्थापित करता है. जिस तरह भाषिक अभिव्यक्ति मिक्स होती जा रही है, उसी तरह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भी. आज के युवाओं के पहनावे, साज-श्रृंगार, संवाद-विवाद का तरीका, सुख और सुविधाओं के आधारभूत तत्त्व और परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रदर्शन का स्वरूप भारतीय संस्कृति की नव्यात्मकता को स्पष्ट कर देता है. ऐसे में अमिताभ बच्चन का यह कथन हास्यास्पद लगता है कि
आज हर बात पर सोचने और काम करने के तरीकों और दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूर आ गया है. इस बदलाव को संस्कृति के बदलाव से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.
------------------------------ (आउटलुक -40, पृ0-23)

भारतीय संस्कृति एक रंगमहल है जिसमें अनगिनत दरवाजे हैं. जवाहरलाल नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था और मनमोहन सिंह के उदारवाद ने क्रमश: इन दरवाजों को खोल दिया. समय के साथ संस्कृति के रंग-रूप बदलते गए, जिसे किसी ने पापुलर कल्चर और मास कल्चर पुकारा तो किसी ने अपसंस्कृति कहा. समकालीन भूमंडलीकृत उद्योगों ने एक तरफ भारत के अर्थशास्त्र को बदल दिया है तो दूसरी तरफ सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी. संस्कृति का विराट उद्योग जगत अत्यंत उद्धत और विकसित है. जिसके माध्यम से उत्पादित संस्कृति को छुट्टा साँड भी कहा जाता है.
भारतीय युवाओं पर संस्कृति के इस वर्तमान स्वरूप का न केवल प्रभाव पड़ता है वरन् प्रभाव की रूपरेखा उद्योगों के स्वरूप को भी परिवर्तित कर देती है. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति हिन्दुस्तान की जातीय पहचान न रहकर, निर्यातित अथवा आयातित माल का परम्परागत संस्कृति के साथ री-मिक्स आइटम हो जाती है. इस आइटम में जातिगत कट्टरता की शिथिलता, प्रेम की पाबंदियों का तिरस्कार सकारात्मक है तो अश्लील चाहतों, नंगई हरकतों के साथ स्वार्थ की प्रबलता भी विद्यमान है, जो मानवीय चेतना और मूल्यों को कमज़ोर करती जा रही है. ऐसा पूर्ववर्ती दौर में भी था, लेकिन इसके दायरे हुआ करते थे. आज दायरों को या तो अभाव है, अथवा दायरों के भी दायरे हैं. सांस्कृतिक बाज़ारतंत्र में नैतिक दायरों की सख्त ज़रूरत है.
फिल्में, टी.वी., सूचना, फैशन, पेज-थ्री, खेल, विज्ञापन, धार्मिक आचरण आदि क्षेत्रों के माध्यम से युवा वर्ग की जीवन-शैली और जीवन-मूल्य निर्धारित होता है, जिससे संस्कृति परिवर्तित, विकसित एवं पुनर्रचित हो पाती है. इसीलिए यह क्षेत्र बाज़ारतंत्र की गतिविधियों को तय करता है जो केवल लाभ के एकल उद्देश्य से गतिशील रहता है. फलत: संस्कृति, आदर्शतम मूल्यों से परे व्यक्तिगत-मूल्य-विधानों की नियंता बन जाती है. आज भारतीय युवक यह कहते ना के बराबर दिखते हैं कि मैं गरीबों का दिल, हूँ वतन की ज़ुबाँ. अक्सर यही कहते दिखते हैं कि मैं अमीरों से अमीर, होऊँ अमेरिकन इंसाँ. वह भी अंग्रेजी में.
स्पष्ट है कि समकालीन युवाओं पर व्यक्तिगत-मूल्य-विधानों का प्रभाव अधिक है, जिसे अर्जित करने की कोई निर्धारित अथवा नैतिकजन्य प्रविधि नहीं है. ऐसे में धूमिल की ये पंक्तियाँ प्रासंगिक लगती हैं कि
ज़िंदा रहने के पीछे यदि सही (मानवीय) तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रंडियों की
दलाली करके रोजी कमाने में कोई फ़र्क नहीं है.

Monday, July 14, 2008

यथार्थ जगत और साहित्य


साहित्य और यथार्थ जगत के संबंध पर विचार करना इसलिए आवश्यक होता है कि यूरोप और अमरीका के अनेक साहित्यकार यथार्थ जगत के अस्तित्व या महत्त्व को अस्वीकार करके अपने मानस से साहित्य-सृष्टि करने का दावा करते हैं. इसके लिए वे भाववादी दर्शन की विभिन्न विचारधाराओं का सहारा लेते हैं. इस सबका प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी पड़ रहा है और अनेक हिंदी लेखक भारतेंदु से लेकर प्रेमचन्द तक के साहित्य-विकास को बढ़ाने के बदले उसे किसी न किसी रूप में अस्वीकार करते हैं और विदेश की उन भावधाराओं को ग्रहण करते हैं जिनमें लेखक के अहम् की तुलना में समग्र संसार नगण्य ठहरता है.


प्लैटो, बर्कले, हेगल – यूरोप के इन भाववादी दार्शनिकों का प्रभाव वहाँ समाप्त नहीं हो गया. समाप्त होना तो दूर, आधुनिक भौतिकशास्त्र (फिजिक्स) की प्रगति से कुछ वैज्ञानिकों ने भी यह परिणाम निकाला है कि बाह्य जगत का अस्तित्व नहीं है. हाइजेनवर्ग और प्लांक के अनुसंधानों ने विज्ञान में संदेहवाद या अज्ञेयवाद को प्रश्रय दिया. पहले पदार्थ और शक्ति (मैटर और एनर्जी) में अंतर माना जाता था. अब पता चला कि पदार्थ की गति लहरों के रूप में होती है.
प्रत्येक लहर (वेवलेंथ) का संबंध शक्ति (एनर्जी) के एक निश्चित माप से रहता है. शक्ति के इस माप को क्वांटम कहते हैं. यह क्वांटम केवल लहर की माप (वेवलेंथ) पर निर्भर रहता है. क्वांटम के बारे में धारणा यह है कि वह प्रति सेकेंड रेडिएशन के स्पंदनों के अनुपात में होता है.

संदेहवाद के उत्पन्न होने का कारण यह है कि प्रकृति में कण और लहर की पुरानी धाराओं के बदले हमें ऐसे पदार्थ के दर्शन होते हैं जो कण और लहर दोनों है. यदि कण की स्थिति का ही पता लगाना हो तो पुरानी पद्धति से पता लगा लिया जाए. किंतु जब वह कण लहर भी है, तब स्थिति का पता कैसे लगे?
साथ ही यथार्थ जगत में हस्तक्षेप किए बिना उसे जानना संभव नहीं होता और हस्तक्षेप करते ही उसकी यथार्थता दूषित हो जाती है. इस संबंध में मौरिस कौर्नफोर्थ आदि मार्क्सवादी विचारकों का कहना है कि पुरानी नाप-जोख की पद्धति से यह कठिनाई उत्पन्न होती है. इससे परिणाम यह नहीं निकलता कि हम यथार्थ जगत को जान नहीं सकते वरन यह निकलता है कि उसे जानने की पुरानी पद्धति बदलना आवश्यक है. (देखिए मार्क्सिस्ट क्वार्टरली, जुलाई, 1954 में आर्थर सडैबी और मौरिस कौर्नफोर्थ का लेख ‘क्वांटम भौतिकशास्त्र की दार्शनिक समस्याएँ’.)

बर्ट्रेंड रसेल जैसे दार्शनिक दर्शनशास्त्र का मुख्य कार्य तार्किक विश्लेषण समझते हैं. उनके लिए सारे भ्रमों की जड़ भाषा का असंगत प्रयोग है. इस भ्रम को दूर करने का परिणाम यह होता है कि संसार ही भ्रम सिद्ध हो जाता है. विशुद्ध चेतना का अनुसंधान करनेवाले अनेक दार्शनिक बाह्य जगत के अस्तित्व से इनकार करते हैं.

लोग बात करते हैं अस्तित्ववाद की लेकिन इनकार करते हैं वाह्य जगत के अस्तित्व से. अस्तित्ववाद को प्रभावित करनेवाले किर्कगार्ड का कहना था, ‘सत्य केवल आत्मगत होता है’ (Truth is subjectivity)। इस प्रकार वस्तुगत सत्य को अस्वीकार कर दिया गया. फिलिप मैरे जैसे अस्तित्ववादी नीत्शे को भी अस्तित्ववादी मानते हैं. ‘‘नीत्शे किर्कगार्ड के बारे में कुछ न जानता था किंतु व्यक्ति की चिंता, निर्णय और भावना बल देने के कारण वह अस्तित्ववादी था.’’ नीत्शे के इस अस्तित्ववादी ने जर्मनी में युद्धकामी शक्तियों को प्रोत्साहन दिया जिससे दो बार विश्व-युद्ध हुआ. विश्व-युद्ध के मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक थे. इन कारणों का ही एक परिणाम नीत्शे का व्यक्तिवाद था जिसने युद्ध-प्रचार में सहायता दी.
बीसवीं सदी में पूँजीवाद का विकृत दर्शन व्यक्तिवाद पर निर्भर है. साधारणत: वह मानवप्रगति का विरोध करता है; विशेष परिस्थितियों में वह युद्ध-प्रचार में सहायक भी हो जाता है.

कैथलिक और नास्तिक, दोनों प्रकार के अस्तित्ववादियों का सामान्य गुण बतलाते हुए सार्त्र ने लिखा है, ‘‘उनका विश्वास है कि तत्त्व पहले अस्तित्व है; दूसरे शब्दों में हमें शुरूआत आत्मगत पक्ष से करनी चाहिए.’’ यह आत्मगत पक्ष क्या है ? ‘‘प्रत्येक मनुष्य एक सार्वजनीन धारणा, मानव-संबंधी धारणा का विशेष उहाहरण है.’’ इससे यह न समझना चाहिए कि विशेष मानव की तुलना में सामान्य मानवता महत्त्वपूर्ण है. आशावादी विचारकों से भी अपनी भिन्नता विज्ञापित करते हुए सार्त्र ने लिखा है, ‘‘सत्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मैं सोचता हूँ, इसलिए हूँ. यह उस चेतना का निरपेक्ष सत्य है जो अपने को प्राप्त करती है. अपने को प्राप्त करने के इस क्षण के बाहर मनुष्य के संबंध में जो भी सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है, वह सत्य का हनन करता है.’’ सार्त्र के अनुसार यह सिद्धांत मानव- गौरव के अनुकूल है क्योंकि इससे मनुष्य पदार्थ नहीं बन जाता. ‘‘सभी तरह के भौतिकवाद विचारक को बाध्य करते हैं कि वह सभी मनुष्यों को-अपने को भी-पदार्थ समझे अर्थात उसे पूर्वनिश्चित प्रतिक्रियाओं का परिणाम समझे जो मेज, कुर्सी या पत्थर के गुणसमूहों और संघटनों से भिन्न नहीं है.’’ नैतिक क्षेत्र में अच्छे-बुरे का निर्णय भी व्यक्ति ही करता है; जिस समाज का वह सदस्य है, उसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है. ‘‘यदि मैं किसी काम को अच्छा समझता हूँ तो वह मैं ही हूँ जो उसके अच्छे-बुरे होने का निर्णय करता हूँ.’’ इस प्रकार मनुष्य परम असामाजिक प्राणी ठहरता है. साहित्य में साधारणीकरण की गुंजाइश ही नहीं रहती. सार्त्र की इस व्यक्तिवादी विचारधारा का असर अज्ञेय, धर्मवीर भारती प्रभृति आत्मोपलब्धि में तल्लीन निरपेक्ष व्यक्तिवाले सज्जनों पर देखा जा सकता है.

सार्त्र ने अपनी विचारधारा को सभी तरह भौतिकवाद से भिन्न ठीक ही बतलाया है. अस्तित्ववाद पुराने भाववाद- चेतना को सत्य और संसार को मिथ्या समझनेवाली विचारधारा-का ही एक रूप है. भाववाद के अनेक रूप अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं वैज्ञानिक भौतिकवाद को। भाववादियों के अनुसार वैज्ञानिक भौतिकवाद में आस्था रखनेवाले लोग मनुष्य में आस्था खो देते हैं. आस्था का प्रश्न हल करना है तो समाज निरपेक्ष अहम् में विश्वास करो. कला और साहित्य को उसी का विस्फोट मानो. कुछ अन्य मित्र जो संसार को मिथ्या नहीं कहते, वैज्ञानिक भौतिकवाद को दर्शन ही नहीं मानते. उनकी समझ में वैज्ञानिक भौतिकवाद जगत के स्वरूप की व्याख्या नहीं करता, न वह ज्ञान की समस्या हल करता है. प्रतीति में भी तो होता है; फिर कैसे जानें, कौन-सी प्रतीति भ्रम है और कौन-सी वास्तविक ज्ञान? वैज्ञानिक भौतिकवाद व्यवहार पर बल देता है. इसे कुछ विद्वान शुद्ध चेतना का अपमान समझते हैं. ज्ञान का साक्ष्य चेतना के अंदर ही होना चाहिए; बाहर हुआ तो फिर दार्शनिकता कहाँ रही.

वैज्ञानिक भौतिकववाद के अनुसार मनुष्य प्रकृति की उपज है और विचार चेतना मानव-मस्तिष्क की उपज। मस्तिष्कहीन विचार और चेतना का अस्तित्व केवल कल्पना की वस्तु है. भौतिकता से परे चेतना का निवास नहीं है. जिस पदार्थ का गुण चेतना है, उसमें विद्युत-प्रहारों द्वारा हस्तक्षेप करके चेतना के अनेक अंगों को नष्ट किया जा सकता है. सर में चोट लगने से स्मृति का नष्ट होना साधारण अनुभव-क्षेत्र की बात है.

चेतना मस्तिष्क में निहित पदार्थ का गुण है, प्रकृति के एक अंश का गुण है, इसलिए वास्तविक विचार केवल चिंतन द्वारा अपने भीतर से उत्पन्न नहीं किए जा सकते. सही विचार के लिए मानव-चेतना और बाह्य जगत का सम्पर्क आवश्यक होता है. इस कारण ज्ञान का आधार मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव है. अपने व्यवहार से ही मनुष्य अपना ज्ञान समृद्ध करता है. ज्ञान से वह व्यवहार-क्षेत्र में आगे बढ़ता है. इस आगे बढ़ने के नए अनुभव से वह अपने ज्ञान को फिर से समृद्ध करता है. इस प्रकार व्यवहार-क्षेत्र के विकास के कारण मनुष्य का ज्ञान नित विकसित होता रहता है. वैज्ञानिक भौतिकवादी के लिए व्यवहार-क्षेत्र से संन्यास केवल आत्मचिंतन से पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती. ‘‘जो लोग समझते है कि आँख मूँदकर ध्यान या समाधि लगाने से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की बातें सूझने लगती हैं उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए.’’ ये शब्द रामचन्द्र शुक्ल ने ‘विश्व-प्रपंच’ की एक पाद-टिप्पणी में लिखे थे. जिन मूल वाक्यों पर उन्होंने टिप्पणी लिखी थी वे ये हैं, ‘‘अत: बिना इस प्रकार के बाह्य निरीक्षण के केवल आत्म-निरीक्षण-द्वारा निश्चित मनो व्यापार संबंधिनी बातें बाह्य पक्की नहीं समझी जा सकतीं. पर वाह्य निरीक्षण की पूर्णता के लिए शरीर-विज्ञान, अंगविच्छेद शास्त्र, शरीराणु-विज्ञान, गर्भ विज्ञान और जीव-विज्ञान इत्यादि का यथावत ज्ञान होना चाहिए.’’

बाह्य निरीक्षण आवश्यक है. केवल आत्म-निरीक्षण द्वारा मनोव्यापार-संबंधी –अर्थात चेतना संबंधी बातें पक्की नहीं समझी जा सकतीं. आँख मूँदकर ध्यान लगाने और भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान का दावा करनेवालों के हाथ आत्म-प्रवंचना ही लगती है.

वैज्ञानिक भौतिकवाद व्यवहार, अनुभव और प्रयोग से परे इलहाम द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का दावा नहीं कर सकता. जो दार्शनिक व्यवहार से दूर रहकर विशुद्ध चिंतन से पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं या ऐसा ज्ञान प्राप्त करने का दावा करते हैं, वे अवश्य या तो स्वयं पैगंबर होंगे या किसा पैगंबर के सहारे उन्हें यह गुप्त ज्ञान प्राप्त हुआ होगा. उनके ज्ञान में उन्हीं को आस्था हो सकती है जो श्रद्धालु भक्त हैं; इलहाम की बातों को यह संदेह से देखनेवाले, व्यवहार द्वारा ज्ञान-अज्ञान का भेद करनेवाले वैज्ञानिकों को उस पर विश्वास नहीं हो सकता. भाववादी दर्शन ज्ञान की पूर्ण व्यवस्था देने का दावा करते हैं. भौतिकवादी दर्शन पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह ज्ञान को विकासमान समझता है. विश्व क्या है, पदार्थ का मूल रूप क्या है, जीव-अजीव का संबंध कैसा है, इन प्रश्नों के बारे में भौतिकवादी दर्शन विज्ञान से ऊपर उठकर, शुद्ध चिंतन के बल पर, निर्णयात्मक उत्तर नहीं देता. विश्व के प्रति उनका दृष्टिकोण, उसके तर्क और चिंतन की पद्धति वैज्ञानिक अनुभवों पर निर्भर है और इसलिए वह वैज्ञानिक प्रगति में सहायक होती है.

इंगलैंड के बेकन और लॉक जैसे चिंतकों ने अनुभव और व्यवहार को ज्ञान का आधार और उसकी कसौटी माना था. फ्रांस के भौतिकवादियों ने इस विचारधारा को विकसित किया था. वैज्ञानिक भौतिकवाद ने हेगल की द्वंद्वात्मक पद्धति और फ्रांस के भौतिकवाद से बहुत कुछ लिया. किंतु उसने ज्ञान और व्यवहार का संबंध नए ढंग से जोड़ा. मार्क्स ने कहा कि दार्शनिक ने अभी तक तरह-तरह से संसार की व्याख्या ही की है; लेकिन मुख्य बात है, उसे बदलने की.
वैज्ञानिक भौतिकवाद का जन्म संसार को समझने और उसे बदलने के लिए, मानवजीवन को सुखी बनाने के लिए हुआ. इसका कारण यह था कि इतिहास में एक नई घटना घट चुकी थी. यह घटना थी मजदूर-वर्ग का जन्म। यह वर्ग अपने जन्म से ही संसार को बदलने के स्वप्न देखने लगा था. मार्क्स ने स्वप्न को साकार करने की वैज्ञानिक पद्धति निकाली. व्यवहार और परिवर्तन पर इस प्रकार बल देने का यह अर्थ नहीं है कि वैज्ञानिक भौतिकवाद चिंतन को, बौद्धिक क्रिया को नगण्य समझता है. नहीं, बुद्धि को व्यवहार-जगत से संबद्ध करके वह बौद्धिक क्रिया को सार्थक करता है.


-------------------------रामविलास शर्मा, आस्था और सौंदर्य से साभार

मानो या ना मानो

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दरिद्र देश के धनिक
कोढ़ि कुढब तन पर मणिमय आभूषण.


________________________ नागार्जुन